Saturday, 7 September 2013

यौगिक चक्र

यौगिक चक्र

चक्रः चक्र आध्यात्मिक शक्तियों के केन्द्र हैं। स्थूल शरीर में ये चक्र चर्मचक्षुओं से नहीं दिखते हैं। क्योंकि ये चक्र हमारे सूक्ष्म शरीर में होते हैं। फिर भी स्थूल शरीर के ज्ञानतंतुओं-स्नायुकेन्द्रों के साथ समानता स्थापित करके उनका निर्देश किया जाता है।
हमारे शरीर में सात चक्र हैं और उनके स्थान निम्नांकित हैं-
1. मूलाधार चक्रः गुदा के नज़दीक मेरूदण्ड के आखिरी बिन्दु के पास यह चक्र होता है।
2. स्वाधिष्ठान चक्रः नाभि से नीचे के भाग में यह चक्र होता है।
3. मणिपुर चक्रः यह चक्र नाभि केन्द्र पर स्थित होता है।
4. अनाहत चक्रः इस चक्र का स्थान हृदय मे होता है।
5. विशुद्धाख्य चक्रः कंठकूप में होता है।
6. आज्ञाचक्रः यह चक्र दोनों भौहों (भवों) के बीच में होता है।
7. सहस्रार चक्रः सिर के ऊपर के भाग में जहाँ शिखा रखी जाती है वहाँ यह चक्र होता है।

कुछ उपयोगी मुद्राएँ

प्रातः स्नान आदि के बाद आसन बिछा कर हो सके तो पद्मासन में अथवा सुखासन में बैठें। पाँच-दस गहरे साँस लें और धीरे-धीरे छोड़ें। उसके बाद शांतचित्त होकर निम्न मुद्राओं को दोनों हाथों से करें। विशेष परिस्थिति में इन्हें कभी भी कर सकते हैं।
लिंग मुद्रा
लिंग मुद्राः दोनों हाथों की उँगलियाँ परस्पर
भींचकर अन्दर की ओर रहते हुए अँगूठे को
ऊपर की ओर सीधा खड़ा करें।
लाभः शरीर में ऊष्णता बढ़ती है, खाँसी मिटती
है और कफ का नाश करती है।


शून्य मुद्राः सबसे लम्बी उँगली (मध्यमा) को
शून्य मुद्रा
अंदपर की ओर मोड़कर उसके नख के ऊपर वाले
भाग पर अँगूठे का गद्दीवाला भाग स्पर्श करायें। शेष
तीनों उँगलियाँ सीधी रहें।
लाभः कान का दर्द मिट जाता है। कान में से पस
निकलता हो अथवा बहरापन हो तो यह मुद्रा 4 से 5
मिनट तक करनी चाहिए।
पृथ्वी मुद्रा
पृथ्वी मुद्राः कनिष्ठिका यानि सबसे छोटी उँगली को
अँगूठे के नुकीले भाग से स्पर्श करायें। शेष तीनों
उँगलियाँ सीधी रहें।
लाभः शारीरिक दुर्बलता दूर करने के लिए, ताजगी
व स्फूर्ति के लिए यह मुद्रा अत्यंत लाभदायक है।
इससे तेज बढ़ता है।
सूर्यमुद्रा
सूर्यमुद्राः अनामिका अर्थात सबसे छोटी उँगली के
पास वाली उँगली को मोड़कर उसके नख के ऊपर
वाले भाग को अँगूठे से स्पर्श करायें। शेष तीनों
उँगलियाँ सीधी रहें।
लाभः शरीर में एकत्रित अनावश्यक चर्बी एवं स्थूलता
को दूर करने के लिए यह एक उत्तम मुद्रा है।
ज्ञान मुद्रा
ज्ञान मुद्राः तर्जनी अर्थात प्रथम उँगली को अँगूठे के
नुकीले भाग से स्पर्श करायें। शेष तीनों उँगलियाँ
सीधी रहें।
लाभः मानसिक रोग जैसे कि अनिद्रा अथवा अति
निद्रा, कमजोर यादशक्ति, क्रोधी स्वभाव आदि हो तो
यह मुद्रा अत्यंत लाभदायक सिद्ध होगी। यह मुद्रा
करने से पूजा पाठ, ध्यान-भजन में मन लगता है।
वरुण मुद्रा
इस मुद्रा का प्रतिदिन 30 मिनठ तक अभ्यास करना चाहिए।
      वरुण मुद्राः मध्यमा अर्थात सबसे बड़ी उँगली के मोड़ कर
उसके नुकीले भाग को अँगूठे के नुकीले भाग पर स्पर्श करायें। शेष तीनों उँगलियाँ सीधी रहें।
लाभः यह मुद्रा करने से जल तत्त्व की कमी के कारण होने
वाले रोग जैसे कि रक्तविकार और उसके फलस्वरूप होने
वाले चर्मरोग व पाण्डुरोग (एनीमिया) आदि दूर होते है।
प्राण मुद्राः कनिष्ठिका, अनामिका और अँगूठे के ऊपरी भाग
प्राण मुद्राः
को परस्पर एक साथ स्पर्श करायें। शेष दो उँगलियाँ
सीधी रहें।
लाभः यह मुद्रा प्राण शक्ति का केंद्र है। इससे शरीर
निरोगी रहता है। आँखों के रोग मिटाने के लिए व चश्मे
का नंबर घटाने के लिए यह मुद्रा अत्यंत लाभदायक है।
वायु मुद्राः तर्जनी अर्थात प्रथम उँगली को मोड़कर
ऊपर से उसके प्रथम पोर पर अँगूठे की गद्दी
वायु मुद्राः
स्पर्श कराओ। शेष तीनों उँगलियाँ सीधी रहें।
लाभः हाथ-पैर के जोड़ों में दर्द, लकवा, पक्षाघात,
हिस्टीरिया आदि रोगों में लाभ होता है। इस मुद्रा
के साथ प्राण मुद्रा करने से शीघ्र लाभ मिलता है।
अपानवायु मुद्राः अँगूठे के पास वाली पहली उँगली
को अँगूठे के मूल में लगाकर अँगूठे के अग्रभाग की
बीच की दोनों उँगलियों के अग्रभाग के साथ मिलाकर
सबसे छोटी उँगली (कनिष्ठिका) को अलग से सीधी
रखें। इस स्थिति को अपानवायु मुद्रा कहते हैं। अगर
अपानवायु मुद्रा
किसी को हृदयघात आये या हृदय में अचानक
पीड़ा होने लगे तब तुरन्त ही यह मुद्रा करने से
हृदयघात को भी रोका जा सकता है।
लाभः हृदयरोगों जैसे कि हृदय की घबराहट,
हृदय की तीव्र या मंद गति, हृदय का धीरे-धीरे
बैठ जाना आदि में थोड़े समय में लाभ होता है।
पेट की गैस, मेद की वृद्धि एवं हृदय तथा पूरे
शरीर की बेचैनी इस मुद्रा के अभ्यास से दूर होती है। आवश्यकतानुसार हर रोज़ 20 से 30 मिनट तक इस मुद्रा का अभ्यास किया जा सकता है।

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