Wednesday, 25 December 2013

कैलाश मानसरोवर : एक साहसिक तीर्थयात्रा

सभी तीर्थ करने के बाद कैलाश मानसरोवर का तीर्थ करना हिंदू धर्म के अलावा जैन, बौद्ध और अन्य धर्म के श्रद्धालुओं में बहुत लोकप्रिय है। यह बहुत ही साहसिक तीर्थयात्रा है जिसकी शुरुआत सितंबर में की जाती है। उत्तराखंड तिब्बत होते हुए लगभग दो महीने में यह यात्रा पूरी होती है।

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परिक्रमा का है महत्व
कैलाश पर्वतमाला कश्मीर से लेकर भूटान तक फैली हुई है। ल्हासा चू और झोंग चू के बीच पर्वत है जिसके उत्तरी शिखर का नाम कैलाश है। इस शिखर की आकृति शिवलिंग की तरह है। इसकी परिक्रमा का काफी महत्व बताया गया है। जो इसकी 108 परिक्रमा पूरी करते हैं उन्हें जन्म-मरण से मुक्ति मिल जाती है।

पुराना है इतिहास

कैलाश (तीर्थ) हिमालय के तिब्बत में स्थित एक तीर्थ है जिसे रजतगिरि भी कहते हैं। पौराणिक अनुश्रतियों के अनुसार शिव और ब्रह्माा आदि देवगण, मरीच आदि ऋषि और रावण, भस्मासुर आदि ने यहां तप किया था। पांडवों के दिग्विजय प्रयास के समय अर्जुन ने इस प्रदेश पर विजय प्राप्त की थी। इस प्रदेश की यात्रा व्यास, भीम, कृष्ण, दत्तात्रेय आदि ने की थी।

जैन धर्म में भी उल्लेख
जैन धर्म में भी इस स्थान का महत्व है। वे कैलाश को अष्टापद कहते हैं। कहा जाता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने यहीं निर्वाण प्राप्त किया था। बौद्ध साहित्य में मानसरोवर का उल्लेख अनवतप्त के रूप में हुआ है। उसे पृथ्वी पर स्थित स्वर्ग कहा गया है।

Tuesday, 24 December 2013

हिन्दू धर्म के शुभ रिवाज

हिन्दू धर्म में पूजा के समय कुछ बातें अनिवार्य मानी गई है। जैसे प्रसाद, मंत्र, स्वास्तिक, कलश, आचमन, तुलसी, मांग में सिंदूर, संकल्प, शंखनाद और चरण स्पर्श। 

आइए जानते हैं इनका क्या पौराणिक महत्व है : - 

प्रसाद क्यों चढ़ाया जाता है?

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- हे मनुष्य! तू जो भी खाता है अथवा जो भी दान करता नहै, होम-यज्ञ करता है या तप करता है, वह सर्वप्रथम मुझे अर्पित कर। प्रसाद के जरिए हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं। इसके अलावा यह उसके प्रति आस्थावान होने का भी भाव है।

मंत्रों का महत्

देवता मंत्रों के अधीन होते हैं। मंत्रों के उच्चारण से उत्पन्न शब्द- शक्ति संकल्प और श्रद्धा बल से द्विगुणित होकर अंतर‍िक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना से संपर्क करती है और तब अंतरंग पिंड एवं बहिरंग ब्रह्मांड एक अद्भुत शक्ति प्रवाह उत्पन्न करते हैं, जो सिद्धियां प्रदान करती हैं।

जानिए, क्यों है पूजन में स्वस्तिक का महत्व 

गणेश पुराण में कहा गया है कि स्वस्तिक चिह्न भगवान गणेश का स्वरूप है, जिसमें सभी विघ्न-बाधाएं और अमंगल दूर करने की शक्ति है। आचार्य यास्क के अनुसार स्वस्तिक को अविनाशी ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। इसे धन की देवी लक्ष्मी यानी श्री का प्रतीक भी माना गया है।

ऋग्वेद की एक ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक भी माना गया है, जबकि अमरकोश में इसे आशीर्वाद, पुण्य, क्षेम और मंगल का प्रतीक माना गया है। इसकी मुख्यत: चारों भुजाएं चार दिशाओं, चार युगों, चार वेदों, चार वर्णों, चार आश्रमों, चार पुरुषार्थों, ब्रह्माजी के चार मुखों और हाथों समेत चार नक्षत्रों आदि की प्रतीक मानी जाती है। भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को कल्याणकारी माना गया है। सर्वत्र यानी चतुर्दिक शुभता प्रदान करने वाले स्वस्तिक में गणेशजी का निवास माना जाता है। यह मांगलिक कार्य होने का परिचय देता है।

मांगलिक कार्यों का कल
नवरात्रि में कलश स्थापित करने की विधि और शुभ मुहूर्त

धर्मशास्त्रों के अनुसार कलश को सुख-समृद्धि, वैभव और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना गया है। देवी पुराण के अनुसार मां भगवती की पूजा-अर्चना करते समय सर्वप्रथम कलश की स्थापना की जाती है। नवरा‍त्र पर मंदिरों तथा घरों में कलश स्थापित किए जाते हैं तथा मां दुर्गा की विधि-विधानपूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है। मानव शरीर की कल्पना भी मिट्टी के कलश से की जाती है। इस शरीररूपी कलश में प्राणिरूपी जल विद्यमान है। जिस प्रकार प्राणविहीन शरीर अशुभ माना जाता है, ठीक उसी प्रकार रिक्त कलश भी अशुभ माना जाता है। इसी कारण कलश में दूध, पानी, अनाज आदि भरकर पूजा के लिए रखा जाता है। धार्मिक कार्यों में कलश का बड़ा महत्व है।


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आचमन तीन बार ही क्यों?

वेदों के मुताबिक धार्मिक कार्यों में तीन बार आचमन करने को प्रधानता दी गई है। कहते हैं कि तीन बार आचमन करने से शारीरिक, मानसिक और वाचिक तीनों प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है और अनुपम अदृश्य फल की प्राप्ति होती है। इसी कारण प्रत्येक धार्मिक कार्य में तीन बार आचमन करना चाहिए।

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तुलसी जगाए सौभाग्

जो व्यक्ति प्रतिदिन तुलसी का सेवन करता है, उसका शरीर अनेक चंद्रायण व्रतों को फल के समान पवित्रता प्राप्त कर लेता है। जल में तुलसीदल (पत्ते) डालकर स्नान करना तीर्थों में स्नान कर पवित्र होने जैसा है और जो व्यक्ति ऐसा करता है वह सभी यज्ञों में बैठने का अधिकारी होता है।

मांग में सिंदूर क्यों सजाती हैं विवाहिता?

मांग में सिंदूर सजाना सुहागिन स्त्रियों का प्रतीक माना जाता है। यह जहां मंगलदायम माना जाता है, वहीं इससे इनके रूप-सौंदर्य में भी निखार आ जाता है। मांग में सिंदूर सजाना एक वैवाहिक संस्कार भी है।

शरीर-रचना विज्ञान के अनुसार सौभाग्यवती स्त्रियां मांग में‍ जिस स्थान पर सिंदूर सजाती हैं, वह स्थान ब्रह्मरंध्र और अहिम नामक मर्मस्थल के ठीक ऊपर है। स्त्रियों का यह मर्मस्थल अत्यंत कोमल होता है।

इसकी सुरक्षा के निमित्त स्त्रियां यहां पर सिंदूर लगाती हैं। सिंदूर में कुछ धातु अधिक मात्रा में होता है। इस कारण चेहरे पर जल्दी झुर्रियां नहीं पड़तीं और स्त्री के शरीर में विद्युतीय उत्तेजना नियंत्रित होती है।

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संकल्प की जरूर

धार्मिक कार्यों को श्रद्धा-भक्ति, विश्वास और तन्मयता के साथ पूर्ण करने वाली धारण शक्ति का नाम ही संकल्प है। दान एवं यज्ञ आदि सद्कर्मों का पुण्य फल तभी प्राप्त होता है, जबकि उन्हें संकल्प के साथ पूरा किया गया हो। कामना का मूल ही संकल्प है और यज्ञ संकल्प से ही पूर्ण होते हैं।

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धार्मिक कार्यों में शंखना

अथर्ववेद के मुताबिक शंख अंतरिक्ष, वायु, ज्योतिर्मंडल और सुवर्ण से संयुक्त होता है। शंखनाद से शत्रुओं का मनोबल निर्बल होता है। पूजा-अर्चना के समय जो शंखनाद करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और वह भगवान श्रीहरि के साथ आनंदपूर्वक रहता है। इसी कारण सभी धार्मिक कार्यों में शंखनाद जरूरी है।

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क्यों है चरण स्पर्श की परंपरा 

चरण स्पर्श की क्रिया में अंग संचालन की शारीरिक क्रियाएं व्यक्ति के मन में उत्साह, उमंग, चैतन्यता का संचार करती हैं। यह अपने आप में एक लघु व्यायाम और यौगिक क्रिया भी है, जिससे मन का तनाव, आलस्य और मनो-मालिन्यता से मुक्ति भी मिलती है