हमारे हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था आज के समय में एक विघटन कारी ताकत के रूप में दिखाई दे रही है। यह आज के समय में हिन्दुओ की कमजोरी का मुख्य कारण नज़र आ रही है परन्तु जब हम इतिहास के पन्ने पलटते है तो पता चलता है की जो व्यवस्था आज हमें नज़र आ रही है वो न केवल आज से हजारो साल पहले के सामाजिक परिस्थितियों के पुर्णतः अनुकूल थी बल्कि यदि आज भी यदि उसे सही रूप में लागु किया जाय तो हमारे समाज के लिए हितकारी होंगी ।
आज से हजारो साल पहले जब नगर और गाव छोटे छोटे हुआ करते थे और इनमे आपस में परिवहन व्यवस्था कमज़ोर होती थी तब ये संभव नहीं था हर छोटे छोटे काम के लिए लोग अलग अलग जगह पर यात्रा करे क्योकि तब के समय में यात्रा बेहद लम्बा खीच जाता था अतः इस कमी को पूरा करने के लिए प्रत्येक गाव और नगर को एक स्वतंत्र इकाई बनने पर मजबूर होना पड़ा । एक ऐसी स्वतंत्र इकाई जिसमे उस समाज के हर आवश्यक काम को बिना अन्य जगह पर जाए पूरा किया जा सके अतः इस जरुरत को पूरा करने के लिए जाति नामक व्यवस्था का जन्म हुआ।
एक ऐसी व्यवस्था जिसमे एक ही जगह पर अलग अलग कार्यो को जानने वाले विशेषज्ञ मिल सके ।
१. अध्ययन अध्यापन के लिए ब्राहमण,२. सुरक्षा हेतु छत्रिय,३. गोपालन हेतु ग्वाले ,४. भेड़ पालन हेतु गढ़ेरिये ,५. सुकर पालन हेतु पासी ,६. सब्जी की खेती के लिए कोइरी ,७. अनाज की खेती हेतु कुर्मी ,८. फूलो की खेती हेतु माली ,९. वैदिक काल से ही प्रसिद्द पान की खेती हेतु चौरसिया ,१०. औषधि हेतु वैद्य ,११. लोहा का काम करने के लिए लोहार ,१२. लकड़ी का काम करने के लिए बढई,१३. साज़ सज्जा का काम देखने के लिए नाई ,१४. कपड़े का काम करने के लिए जुलाहे,१५. उनको रंगने के लिए बजाज उनको सिलने के लिए दरजी ,१६. तेल के काम करने वाले साहू ,१७. बाग़ देखने के लिए खटिक
इत्यादि तमाम जातियां तैयार हो गयी ये वास्तव में वो लोग थे जो अपने अपने कार्यो में बेहद पारंगत थे। इस तरह से हम देख रहे है की तब की विशिष्ट आवश्यकता ने जाति नामक व्यवस्था को जन्म दिया ।
परन्तु आज के तथा कथित बुद्धजीवी वर्ग पूरी जाती व्यवस्था को केवल आज के समस्याओ को देखकर गलत ठहरा देता है क्योकि आज वर्ण के आधार पर उच्च नीच का भेद शुरू हो गया क्योकि जो जाति व्यवस्था कर्म आधारित थी वो धीरे धीरे जन्म आधारित हो गयी। चुकी जाति का व्यवस्थित वर्णन गीता में मिलता है अतः तमाम साम्यवादियो ने गीता को गाली देना शुरू कर दिया और ये प्रचारित किया की गीता ऐसी पुस्तक है जो लोगो को लोगो से अलग कर देती है परन्तु जब हम ध्यान से अध्ययन करते है तो पता चलता है की ये सारे आरोप पूर्णतया तथ्य से परे है।
श्रीमद्भाग्वात्गीता में जाति व्यवस्था के बारे में समुचित ढंग से अध्याय १८ में लिखा गया है परन्तु कई जगहों पर उसकी भूमिका हम बनते देख सकते है। सर्वप्रथम हम बात करते है अध्याय ४ श्लोक संख्या १३ की जिसका हिंदी अर्थ निम्नवत है-
“चार वर्णों की मेरी यह श्रृष्टि व्यक्ति के स्वाभाविक गुण और कर्मो के आधार पर बांटी गयी है परन्तु हे अर्जुन मै इनका रचनाकार होते हुए भी इनसे मुक्त हूँ”
इस श्लोक का ध्यान से समझा जाए तो श्री कृष्ण कहते है की इस प्रकृति में मनुष्य को चार जातियों में बांटा गया है लेकिन साथ ही बांटने के तरीके का भी उल्लेख कर दिया गया है, साफ़ साफ़ लिखा है की यह बंटवारा गुण और कर्मो के आधार पर होगा परन्तु इसमें श्री कृष्ण बड़े ही सावधानी से व्यक्ति के स्वाभाविक गुण की बातकर रहे है । दरअसल गुण कर्म और स्वाभाविक गुण और कर्म में एक अंतर है गुण और कर्म तो मेहनत करके और मन मार के सीखे जा सकते है परन्तु स्वाभाविक गुण कर्म वो होता है जिसमे अपने आप व्यक्ति का मन लगा रहता है जैसा की आज कल की भाषा में कहे तो अपने होबी को अपना प्रोफेसन बनाना और हम जानते है की जो लोग अपने होबी को अपना प्रोफेसन बनाते है वो उस काम को बिना बोझ महसूस किये बेहद अच्छे से कर पाते है ।
अब किसके काम को छोटा कहे किसको बड़ा इसका उत्तर श्री कृष्ण अगले ही अध्याय में दे देते है।अध्याय ५ श्लोक संख्या १८ का हम हिंदी अर्थ देखते है
“पूर्ण रूप से ज्ञानी व्यक्ति विद्या विनय युक्त ब्रह्मण,गाय.कुत्ता, हाथी और यहाँ तक की अन्य छोटे जीवो में कोई अंतर नहीं देखता”
इस श्लोक से स्पष्ट है की कोई भी समझदार व्यक्ति जानवर जैसे की कुत्ता हाथी इत्यादि तक को एक सज्जन व्यक्ति के बराबर ही सम्मान देता है तो फिर मनुष्यों की बात ही क्या है। यदि मनुष्य के विभिन्न वर्णों के बिच उच्च नीच का भाव आ रहा है तो यह पूर्ण रूप से मुर्खता की निसानी है क्योकि बुद्धिमान व्यक्ति सबमे परमपिता की ही छाया पता है अतः वह किसी तरह का उच्च नीच नहीं कर सकता।
अब हम चर्चा करते है अध्याय १८ की जिसमे समस्त जाति व्यवस्था को अच्छे तरीके से समझाया गया है.. सबसे पहले श्लोक संख्या ४१ देखते है
”हे अर्जुन ब्राह्मन छत्रिय वैश्य और सूद्र इन चारो के अपने स्वाभाव से उत्पन्न गुणों के आधार अलग अलग कार्यो के लिए विभाजित किया गया है ”
ध्यान देने वाली बात है की यहाँ पर भी स्वाभाव से उत्पन्न गुण की बात की जा रही है न की जबरदस्ती सिखाने की बात हो रही है।
अब हम श्लोक संख्या ४२ देखते है जिसमे ब्राह्मन के कार्य विस्तार से बताये गए है
“आत्म नियंत्रण तप शुद्दता दया आर्जव समानता ज्ञान विज्ञान ये सब के सब ब्राह्मन के स्वाभाविक गुण है”
इसमे कही नहीं लिखा गया है की पूजा पाठ दुनिया भर का ढोंग करना ब्राह्मन का कार्य है बल्कि ये लिखा गया है की व्यक्ति में पाए जाने वाले उच्चतम गुणों के समुच्चय को हम ब्राह्मन कह सकते है।
श्लोक ४३ देखते है जिसमे छत्रिय के स्वाभाविक गुणों को बताया गया है
“शौर्य तेज़ चालाकी दृढ़ता दान और युद्ध में न भागना ये सब छत्रिय के स्वाभाविक कर्म है”
ऐसे गुण जो की एक राजा और उसके सैनिक में होने चाहिए उसको यहाँ पर बताया गया है ।
श्लोक संख्या ४४ देखते है
“कृषि गौपालन वाणिज्य यह वैश्य का स्वाभाविक कर्म है और सभी वर्णों की सेवा करना सूद्र का स्वाभाविक कर्त्तव्य है”
अब प्रश्न यह खड़ा हो सकता है की सभी लोगो के कर्म एक बराबर है या ब्राह्मन के कर्म श्रेष्ठ और शुद्र का कर्म नीच ???
क्या सभी व्यक्ति अपने अपने कर्म को करते हुए सामान प्रतिफल पा सकते है ?? इसका उत्तर श्री कृष्ण अगले ही श्लोक में देते है । जिसका हिंदी निम्नवत है..
“अपने अपने योग्यता से स्वाभाविक कर्त्तव्य में लगा हुआ व्यक्ति परमसिद्धि को प्राप्त होता है”
इस श्लोक में यह स्पष्ट है की चाहे किसी भी वर्ण का व्यक्ति क्यों न हो यदि वह अपना कार्य सही और इमानदार तरीके से करे तो वो भगवत प्राप्ति का सामान अधिकार रखते है अतः किसी को भी अपना कार्य छोटा न समझते हुए अपने कार्य को मन लगाकर करना चाहिए।
अब हम श्लोक संख्या ४७ पर आते है जिसके अनुसार कहा गया है की
”अच्छी तरह अनुष्ठान किये हुए दुसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म परमकल्याण कारक है , स्वाभाव से निर्धारित किया हुआ कर्म करता हुआ मनुष्य अवागंमन से मुक्त हो जाता है”
इस बात की पूरी शंका थी कि ब्रह्मण का कर्म देखने में सबको आकर्षित करता है अतः वे लोग जिनमे वैसे स्वाभाविक गुण नहीं है वे भी दिखावे के लिए वैसा कार्य कर सकते है क्योकि एक नज़र में उनका कार्य ज्यादा श्रेष्ठ लगता है । जबकि ऐसे दिखावे से समाज और व्यक्ति दोनों की केवल हानि ही हानि है क्योकि जिस कार्य में व्यक्ति का मन नहीं लगता उस कार्य में न तो वह श्रेष्टता हासिल कर सकता है न ही वो किसी भी तरह खुश रह सकता है । अतः
श्री कृष्ण जी कहते है की भले अपना धर्म देखने में खराब क्यों न लगे परन्तु उसी को निष्ठा पूर्वक करना चाहिए ।अब हम श्लोक संख्या ४८ देखते है”हे अर्जुन स्वभाव से उत्पन्न अपने कर्म को दोषयुक्त होने पर भी नहीं त्यागना चाहिए क्योकि जिस तरह से अग्नि यानि तेज़ को धुएं यानि कालिख से अलग नहीं कर सकते उसी तरह किसी भी कर्म को दोष से अलग नहीं कर सकते”
इस श्लोक के अनुसार व्यक्ति चाहे जिस वर्ण का क्यों न हो अर्थात उसका स्वाभाव चाहे जैसे सद्कार्यो में क्यों न लगता हो उसे उस कार्य का दोष देखकर नहीं भागना चाहिए क्योकि उस कार्य को वह त्याग कर चाहे जिस कार्य को अपना ले दोष तो हर कार्य में ही होता है ऐसा नहीं है की शुद्र का कार्य ही केवल दोषयुक्त होता है और ब्रह्मण का नहीं।
यह बात एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि माता – पिता के सद्गुण एवम दुर्गुण आनुवंशिक (जेनेटिक) रूप से उनके पुत्र एवम पुत्रियों में हस्तांतरित हो जाते हैं, जो किसी भी व्यक्ति के समस्त गुण और व्यक्तित्व का ३० % निर्धारित करते हैं, व्यक्ति के शेष ३० % गुण एवम व्यक्तित्व के निर्धारण में उनके परिवार का माहौल (वातावरण, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, नैतिक मूल्य, परंपरा, संस्कृति) मुख्य भूमिका निभाते हैं, तथा व्यक्ति के शेष ४० % गुण एवम व्यक्तित्व के निर्धारण में उनकी शिक्षा एवम शैक्षणिक संस्थान का माहौल तथा उनके इर्द गिर्द सामाजिक परिवेश का माहौल (वातावरण, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, नैतिक मूल्य, परंपरा, संस्कृति) मुख्य भूमिका निभाते हैं । यह बात भी एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि जो व्यक्ति जिस परिवार मे पैदा होता है, उस परिवार में माता – पिता के पेशा एवं व्यवसाय के कार्यों को बचपन से ही देखते समझते तथा उन कार्यों में सहयोग करते करते १८ – २० साल की उम्र होते – होते वह व्यक्ति बिना किसी विशेष शिक्षण अथवा प्रशिक्षण के, अपने परिवार के व्यवसाय मे तथा व्यावसायिक दक्षता में उस स्तर की पूर्ण महारत हासिल कर लेता है, जिसे कोइ दूसरे व्यवसाय को धारण करने वाले दूसरे परिवार मे जन्मा व्यक्ति ५ – ६ साल की विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने के बावजूद भी हासिल नहीं कर सकता । यह बात भी एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि प्रत्येक माता – पिता की चाहत होती है कि जिस व्यवसाय को उसने अपनाया है तथा जिस व्यवसाय को सफल बनाने और उसे अधिकतम संभव ऊंचाई तक ले जाने के लिये उसने जीवन भर कठिन परिश्रम किया है, उस व्यवसाय को उसके उत्तराधिकारी वंशज भी अपनायें तथा उसे और आगे बढायें । इसीलिये पीढी – दर – पीढी निरंतर लोग अपने परिवार मे माता – पिता के व्यवसाय को ही अपनाने लगे तथा व्यावसायिक कार्यों में परस्पर सहयोग एवम सहुलियत के लिये लोग अपने ही पेशा या व्यवसाय (जाति) के लडका – लडकी से विवाह करने लगे तथा समान पेशा या व्यवसाय के लोग एक साथ एक मोहल्ला या टोली बनाकर रह्ने लगे, जिससे भिन्न – भिन्न पेशा या व्यवसाय के लोगों ने अपनी विशेष प्रकार की व्यावसायिक कार्य संस्कृति को जन्म दिया, जिससे जाति प्रथा का विकास हुआ और इसी जाति प्रथा के कारण भारत मे समस्त प्रकार के उच्च स्तरीय ज्ञान – विज्ञान, कला – तकनीक एवम सम्पूर्ण विश्व की सर्वोत्कृष्ट सभ्यता – संस्कृति का विकास हुआ, जिसने सम्पूर्ण विश्व में उच्च स्तरीय ज्ञान – विज्ञान, कला – तकनीक एवम सभ्यता – संस्कृति को विकसित किया तथा सम्पूर्ण विश्व की सभ्यता – संस्कृति को प्रभावित किया ।
प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति अत्यन्त ही उन्नत, सार्थक एवम पूर्णरूपेण व्यावहारिक थी । सुप्रसिद्ध ॠषियों (प्राध्यापक, शिक्षाविद, चिकित्सक, वैज्ञानिक एवम दार्शनिक) द्वारा घने जंगलों में प्राकृतिक वातावरण में चलाये जाने वाले ॠषि आश्रम (आदर्श शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान एवम वैज्ञानिक प्रयोगशाला)) में सुयोग्य व्यक्तियों को समस्त शस्त्र एवम शास्त्र (धर्म शास्त्र, व्यवहार विज्ञान, नीति शास्त्र, राजनीति शास्त्र, गणित, विज्ञान, खगोल शास्त्र, युद्ध कला, धनुर्विद्या, सैन्य शास्त्र आदि) की शिक्षा एवम व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर सभी छात्रों को व्यावहारिक जीवन की समस्त परिस्थितियों का सामना करते हुए सफल जीवन जीने की कला में पारंगत किया जाता था तथा ॠषि आश्रम में ब्राह्मण ॠषि द्वारा निःस्वार्थ भाव से सभी धनी एवं गरीब छात्रों को बिना किसी भेद भाव के एक समान निःशुल्क भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा एवम प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था । ॠषि आश्रमों में छात्र – छात्राओं के समस्त अन्तर्निहित गुणों, शारीरिक एवम मानसिक शक्तियों तथा उनकी प्रतिभा का समग्र रूप में विकास कर उन्हें व्यावहारिक जीवन की परिस्थितियों का तथा दुष्ट प्रकृति के राक्षस प्रवृत्ति के लोगों का सफलतापूर्वक सामना करने में सक्षम बनाया जाता था । इसीलिये समाज में ब्राह्मण (बुद्धिजीवी शिक्षक) एवम ॠषि (आदर्श शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान एवम वैज्ञानिक प्रयोगशाला के संचालक सुप्रसिद्ध प्राध्यापक, शिक्षाविद, चिकित्सक, वैज्ञानिक एवम दार्शनिक) को बहुत ही आदर की दृष्टि (नजर) से देखा जाता था तथा प्रत्येक प्रकार के पूजा- पाठ एवम यज्ञ की समाप्ति के समय ब्राह्मण एवम ॠषि को आवाहन (सादर आमंत्रित) कर के समाज के सभी वर्ग के लोग यथा संभव सर्वाधिक चल एवम अचल सम्पत्ति तथा नकद धन राशी उन्हें समर्पित करते थे ।
इतिहास साक्षी है – दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों ने हमेशा ही समाज की हर व्यवस्था का दुरुपयोग किया है, तथा जिस किसी जाति, पेशा, व्यवसाय, रूप, वस्त्र या पह्नावा को समाज के लोगों ने सम्मान दिया, उसी जाति, पेशा, व्यवसाय, रूप, वस्त्र या पह्नावा को धारण कर ऐसे दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों ने हमेशा ही समाज को तथा समाज के भोले भाले लोगों को ठगा है और यह प्रक्रिया आज भी बदस्तुर जारी है । पूर्व काल में चूंकि समाज में ब्राह्मण और ॠषि को लोग बहुत आदर कि दृष्टी से देखते थे, इसलिये दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्व हमेशा समाज में आदर पाने के लिये तथा समाज के लोगों की आंखों मे धूल झोंककर अपने गलत इरादों को और गलत कार्यों को अन्जाम देने के लिये ब्राह्मण और ऋषि क रूप धारण किया करते थे । ठीक उसी प्रकार आज के जमाने में भी दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्व हमेशा समाज में आदर पाने के लिये तथा समाज के लोगों की आंखों मे धूल झोंककर अपने गलत इरादों को और गलत कार्यों को अन्जाम देने के लिये दुष्ट प्रवृत्ति के अदूरदर्शी परम स्वार्थी तत्व वर्त्तमान व्यवस्था की खामियों का लाभ उठाकर बुद्धिजीवी वर्ग (अर्थात् शिक्षक, प्राध्यापक, प्राचार्य, शिक्षाविद, शोधकर्त्ता, वैज्ञानिक, न्यायविद, न्यायाधीश, कानूनी सलाहकार, नीति निर्धारक, चिकित्सक, मंत्री, प्रधान मंत्री, कवि, लेखक, दार्शनिक, समाज सेवक एवम संस्कृतिकर्मी आदि) का पेशा अपना कर हर बात की गलत व्याख्या कर लोगों को उल्लू बनाकर अपने स्वार्थ की सिद्धि कर रहे हैं तथा समाज में विष वमन कर समाज मे वैमनस्य फैला रहे हैं ।
अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत स्वतंत्र भारत में शासन चलाने के लिये सत्ता में दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों का समावेश हो गया, जो सस्ती लोकप्रियता बनाये रखने और निरंतर सत्ता मे अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये “फूट डालो और शासन करो” की नीति अपनाते रहे तथा जाति और मजहब की अग्नि सुलगाकर राजनीति की रोटियां सेंकने में निरंतर भिडे रहे और आज भी भिडे हुए हैं । स्वतंत्र भारत में अलग – अलग मजहब के लोगों के लिये अलग अलग कानून बनाये गये – हिन्दू एवम मुसलमान के लिये अलग अलग कानून की व्यवस्था की गयी तथा हर क्षेत्र में जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी, जिसे भारतीय संविधान में “अम्बेडकर इफेक्ट” के रूप मे जाना जाता है, जो भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, जो धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है, जो पंथ निरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) के सिद्धान्तों के विरुद्ध है, जो भारतीय जनमानस के बीच वैमनस्य का विष घोलता है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित करता है, जो अयोग्यता एवं अक्षमता को प्रोत्साहित करता है, जो प्रतिभाशाली व्यक्तियों की योग्यता, क्षमता, प्रतिभा, शक्ति एवम दक्षता को कुंठित करता है तथा उनका समाज एवम राष्ट्र के सर्वतोमुखी सतत् निरंतर विकास में सदुपयोग नहीं होने देता है तथा जो प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) की समस्या का जन्मदाता है, जो समाज एवम राष्ट्र के सर्वतोमुखी सतत् निरंतर विकास में सबसे बडी बाधा है ।
जो भी व्यक्ति विकास की दौड में पीछे रह गये हैं, जो शैक्षणिक, सामाजिक एवम आर्थिक रूप से पिछडे हुए हैं, उन सभी व्यक्तियों को व्यक्तिगत पिछडेपन के आधार पर तमाम प्रकार की हर संभव सुविधा प्रदान कर राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल कर उनके सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये । परंतु किसी भी रूप में जाति, सम्प्रदाय, मजहब, भाषा, नस्ल, रंग, स्थान, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेद- भाव नहीं किया जाना चाहिये । किसी भी रूप में जाति, सम्प्रदाय, मजहब, भाषा, नस्ल, रंग, स्थान, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेद- भाव अथवा जाति पर आधारित आरक्षण की पद्धति भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है तथा पंथ निरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) के सिद्धान्तों के विरुद्ध है, जो भारतीय जनमानस के बीच भेद – भाव पैदा करता है तथा वैमनस्य का विष घोलता है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित करता है।
अतः हम देख रहे है कि गीता के अनुसार जाति व्यवस्था निम्नवत है …….
१..जाति जन्म आधारित न होकर कर्म आधारित है।
२..बुद्धिमान व्यक्ति सभी को सामान दृष्टी से देखता है ।
३..व्यक्ति को वही कार्य करना चाहिए जिसमे उसका मन लगता हो ।
४..किसी भी वर्ण का कार्य समाज को चलाने के लिए सामान महत्व रखता है ।
५..उच्च वर्ण के कार्य यदि देखने सुनाने में यदि अच्छे भी लगी तो भी हमे वही कार्य करना चाहिए जिसके लिए हम बने है ।
६..कार्य चाहे छोटा हो या बना ईश्वर उसे समान महत्व देता है अतः हमें भी ऐसा ही सोचना चाहिए ।
७..किसी को भी अपने वर्ण के अनुसार अपने आप को उचा कहने का अधिकार नहीं है क्योकि इश्वर के अनुसार प्रत्येक कार्य ईमानदारी से करने से परम कल्याण को प्राप्त करा सकते है ।
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