Friday, 16 August 2013

यज्ञ और विज्ञान

इस समग्र सृष्टि के क्रियाकलाप '' यज्ञ' रूपी धुरी के चारों ओर ही चल रहें हैं ।। ऋषियों ने ''अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः'' (अथर्ववेद ९. १५. १४) कहकर यज्ञ को भुवन की- इस जगती की सृष्टि का आधार बिन्दु कहा है ।। स्वयं गीताकार योगिराज श्रीकृष्ण ने कहा है-
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाच प्रजापतिः ।।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तविष्ट कामधुक्

अर्थात- ''प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ कर्म के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो ।'' यज्ञ भारतीय संस्कृति के मनीषी ऋषिगणों द्वारा सारी वसुन्धरा को दी गयी ऐसी महत्त्वपूर्ण देन है, जिसे सर्वाधिक फलदायी एवं पर्यावरण केन्द्र इको सिस्टम के ठीक बने रहने का आधार माना जा सकता है ।।

गायत्री यज्ञों की लुप्त होती चली जा रही परम्परा और उसके स्थान पर पौराणिक आधार पर चले आ रहे वैदिकी के मूल स्वर को पृष्ठभूमि में रखकर मात्र माहात्म्य परक यज्ञों की शृंखला को पूज्यवर ने तोड़ा तथा गायत्री महामंत्र की शक्ति के माध्यम से सम्पन्न यज्ञ के मूल मर्म को जन- जन के मन में उतारा ।। यह इस युग की क्रान्ति है ।।

यज्ञ शब्द के अर्थ को समझाते हुए  समग्र जीवन को यज्ञमय बना लेने को ही वास्तविक यज्ञ कहते हैं ।। ''यज्ञार्थ् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः' के गीता वाक्य के अनुसार वे लिखते हैं कि यज्ञीय जीवन जीकर किये गये कर्मों वाला जीवन ही श्रेष्ठतम जीवन है ।। इसके अलावा किये गये सभी कर्म बंधन का कारण बनते हैं व जीवात्मा की परमात्म सत्ता से एकाकार होने की प्रक्रिया में बाधक सिद्ध होते हैं ।। यज्ञ शब्द मात्र स्वाहा- मंत्रों के माध्यम से आहुति दिये जाने के परिप्रेक्ष्य में नहीं किया जाना चाहिए, यह स्पष्ट करते हुए उनने इसमें लिखा है कि यज्ञीय जीवन से हमारा आशय है- परिष्कृत देवोपम व्यक्तित्व ।। वास्तविक देव पूजन यही है कि व्यक्ति अपने अंतः में निहित देव शक्तियों को यथोचित सम्मान देते हुए उन्हें निरन्तर बढ़ाता चले ।। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः की मनुस्मृति की उक्ति के अनुसार सर्वश्रेष्ठ यज्ञ वह है, जिससे व्यक्ति ब्रह्ममय- ब्राह्मणत्व भरा देवोपम जीवन जीते हुए स्वयं- को अपने शरीर, मन, अन्तःकरण को परिष्कृत करता हुआ चला जाता है ।।

यज्ञ परमार्थ प्रयोजन के लिए किया गया एक उच्चस्तरीय पुरुषार्थ है ।। अन्तर्जगत् में दिव्यता का समावेश कर प्राण की अपान में अपना की प्राण में आहुति देकर जीवन रूपी समाधि को समाज रूपी यज्ञ में होम करना ही वास्तविक यज्ञ है ।। भावनाओं में यदि सत्प्रवृत्ति का समावेश होता चला जाय तो यही वास्तविक यज्ञ है ।। युग ऋषि ने यज्ञ की ऐसी विलक्षण परिभाषा कर वैदिक वाङ्मयं के मूलभूत स्वर को ही गुंजायमान किया है ।। यज् धातु से बना यज्ञ देवपूजन, परमार्थ के बाद तीसरे अंतिम अर्थ 'संगतिकरण' सज्जनों के संगठन, राष्ट्र को समर्थ सशक्त बनाने वाली सत्ताओं के एकीकरण के अर्थ परिभाषित करता है ।।

हम पेट की भूख को जठराग्नि कहते हैं और खाद्य द्रव्य उस जठर की अग्नि की उर्जा से रूपांतरित होकर शरीर को पोषण देती है ।।  आयुर्वेद में कहा गया है की सिर्फ़ पौष्टिक खाद्य पदार्थ ही नहीं, पाचन और स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है की खाने की प्रक्रिया, स्थिर चित्त एवं शांत मन से किया जाये ।।  ति स्वादिष्ट भोजन भी तृप्ति और पुष्टि देने में असमर्थ है यदि मन विक्षिप्त हो।। 

ठीक उसी तरह से, यज्ञाग्नि माध्यम है इस प्रकृति को पोषण करने का।। चूंकि यह प्रकृति हमारा पालक है और हमारा जीवन उसी के नियमों के आधीन है, यह अत्यंत आवश्यक है की हम इसके साथ एकात्मकता स्थापित करें l और यज्ञ विधान, उसी सन्दर्भ में एक आध्यात्मिक प्रयोग हैं।।  हम हूत-द्रव्य के माध्यम से, एक योजनाबद्ध तंत्र के द्वारा उस प्रकृति को पोषक तत्व का संचार करतें हैं।। अग्नि की उर्जा एवं वैदिक मंत्रोच्चार के कंपन का संगठित आन्दोलन उस हूत-द्रव्य को परिवर्तित करती है किसी सुक्ष्म तत्व में, जो की वायुमंडल में स्थित प्राण-उर्जा को निहित सकारात्मक वेग प्रदान करती है।।  और प्रकृति उसका रूपांतरण कर हम सब के लिये सुख, शांति और आनंददायक परिस्थिति का निर्माण करती है ।।  यह ही इस यज्ञ प्रणाली का ध्येय है ।। 
जैसे खाद्य को ठीक ढंग से पाचन करने के लिये ज़रूरी है की हम शांत चित्त से उचित खाद्य ग्रहण करें, ठीक वैसे ही, धैर्य और आस्थायुक्त मनःस्थिति में किया हुआ प्रामाणिक यज्ञ विधान इस युग में त्वरित फलप्रदायक उपाय है।। 


चौबीस अवतारों में एक अवतार यज्ञ भगवान भी है ।। यज्ञ हमारी संस्कृति का आराध्य इष्ट रहा है तथा यज्ञ के बिना हमारे किसी दैनन्दिन क्रिया कलाप की कल्पना तक नहीं की जा सकती ।। यज्ञ का विज्ञान पक्ष समझाते हुए पूज्यवर ने बताया है कि सारी सृष्टि की सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए यज्ञ कितनी महत्त्वपूर्ण है ।। देव तत्त्वों की तुष्टि से अर्थ है- सृष्टि संतुलन बनाये रखने वाली शक्तियों का पारस्परिक संतुलन ।। यज्ञ एक प्रकार की टैक्स है- कर है -देव सत्ताओं के प्रति इसे न देने पर जैसे राज्य- प्रशासन, जन समुदाय को दण्डित करता है, उसी प्रकार विभीषिकाएँ भिन्न- भिन्न रूपों में आकर सारी जगती पर अपना प्रकोप मचा देती है ।। दैवी प्रकोपों से बचने का वैज्ञानिक आधार है- यज्ञ ।।

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