काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
कर्म सिद्धि अभिलाषा वाले देवों को जपते जग मेंकर्मो से मानव जल्दी ही सिद्धि प्राप्त करते सब है।।12।।
भावार्थ : इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है॥12॥
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥वाह्य विषय तज भृकुटि में लगा संयमित ध्याननासिका भीतर साम्य से भरते प्राण अपान।।27।।मन,बुद्धि इंद्रियों से वश में कर धर ध्यानक्रोध त्यागकर,मोक्षरत मुक्त सतत सज्ञान।।28।।
भावार्थ : बाहर के विषय-भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि जीती हुई हैं, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि (परमेश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करने वाला।) इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है॥27-28॥
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥हितकारी संसार का,तप यज्ञों का प्राणजो मुझको भजते सदा,सच उनका कल्याण।।29।।
भावार्थ : मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का सुहृद् अर्थात स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्व से जानकर शान्ति को प्राप्त होता है॥29॥
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥मेरी दैवी गुणमयी माया अपरम्पारपर मुझसे जो मिल गये,वे सब होते पार।।14।।
भावार्थ : क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं॥14॥
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥असुरभाव से नराधम,ज्ञान हीन बदनामपा सकते मुझको नहीं,उन्हें नही विश्राम।।15।
भावार्थ : माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते॥15॥
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥चार तरह के लोग हैं,करते मेरी भक्तिआर्त,ज्ञानी जिज्ञासु औ” जो चाहें धन शक्ति।।16।।
भावार्थ : हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए भजने वाला), आर्त (संकटनिवारण के लिए भजने वाला) जिज्ञासु (मेरे को यथार्थ रूप से जानने की इच्छा से भजने वाला) और ज्ञानी- ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं॥16॥
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥इनमें ज्ञानी मुझे प्रिय,एक निष्ठ समज्ञाननित्य भक्त जन को भी मैं,प्रिय हूँ उन्ही समान।।17।।
भावार्थ : उनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है॥17॥
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥भिन्न कामनायें लिये भटके ज्ञान विहीनभिन्न देवों को पूजते अपनी प्रकृति अधीन।।20।।
भावार्थ : उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात पूजते हैं॥20॥
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥जिस जिस में दिखती मुझे पावन प्रीति प्रगाढउस उस के प्रति जगाता उनमें भक्ति की बाढ।।21।।
भावार्थ : जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ॥21॥
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥उस श्रद्धा से युक्त हो कर सब भेद समाप्तकरता मुझसे ही सकल कामनाओं को प्राप्त।।22।।
भावार्थ : वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त करता है॥22॥
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥अल्प बुद्धि जन का रहा,अस्थिर सा विश्वासदेव भक्त पाते देव को मेरे , मेरे पास।।23।।
भावार्थ : परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥23॥
प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।मरण समय में अडोल मन से हो भक्ति से युक्तओै योग बन सेभ्रू मध्य प्राणों को साध सम्यक कर याद मिलना अचल अमर से।।10।।
भावार्थ : वह भक्ति युक्त पुरुष अन्तकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है॥10॥
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥जिसे बताते हैं वेद अक्षर विदागी जिसमें है लीन रहताब्रम्हचर्य आचरते जिसको पाने उस पद से संबंध तुझे बनाना।।11।।
भावार्थ : वेद के जानने वाले विद्वान जिस सच्चिदानन्दघनरूप परम पद को अविनाश कहते हैं, आसक्ति रहित यत्नशील संन्यासी महात्माजन, जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तेरे लिए संक्षेप में कहूँगा॥11॥
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥संयम से सब द्वार रूंध मन से हदय निरोधप्राणों को धर शीर्ष में साधक साधे योग।।12।।ओंकार का नाद कर मुझे जो करते यादजो तजता है देह वह पाता पद अविवाद।।13।।
भावार्थ : सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष ‘ॐ’ इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है॥12-13॥
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ॥अन्य न कुछ भी सोच जो नित मुझे करता यादउसको पार्थ ! सुलभ हूँ मैं नित्य युक्त संवाद।।14।।
भावार्थ : हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्य-चित्त होकर सदा ही निरंतर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य-निरंतर मुझमें युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ, अर्थात उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥14॥
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम् ॥दैवी प्रकृति स्वभाव के आश्रित सज्जन लोगजान मुझे अव्यय अमर पा पूजन का योग।।13।।
भावार्थ : परंतु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृति के (इसका विस्तारपूर्वक वर्णन गीता अध्याय 16 श्लोक 1 से 3 तक में देखना चाहिए) आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं॥13॥
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥योगी ज्ञानी भक्ति से करते कीर्तन गानऔर दृढव्रती कर नमन देते सब सम्मान।।14।।
भावार्थ : वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं॥14॥
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते।एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।अन्य ज्ञान औ” यज्ञ से करते मुझे प्रणामपूजा करते विविध विधि दे विश्वेश्र्वर नाम।।15।।
भावार्थ : दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्म का ज्ञानयज्ञ द्वारा अभिन्नभाव से पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराट स्वरूप परमेश्वर की पृथक भाव से उपासना करते हैं।।15।।
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥मै ही कृति हूँ यज्ञ हूँ,स्वधा,मंत्र,घृत अग्निऔषध भी मैं,हवन मैं प्रबल जैसे जमदाग्नि।।16।।
भावार्थ : क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ॥16॥
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥मै ही जग का पिता हूँ माता धाता वेदमैं पवित्र ओंकार हूँ ऋक साम व यजुर्वेद।।17।।
भावार्थ : इस संपूर्ण जगत् का धाता अर्थात् धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य, (गीता अध्याय 13 श्लोक 12 से 17 तक में देखना चाहिए) पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ॥17॥
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥गति,भर्ता,प्रभु साक्षी हूँ निवास,विश्रामजन्म मरण दाता अमर बीज प्रदीप ललाम।।18।।
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥रचते ज्ञानी यज्ञ से स्वर्ग प्राप्ति का योगपुण्य प्राप्त कर स्वर्ग में करते सुख उपभोग।।20।।
भावार्थ : तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पापरहित पुरुष (यहाँ स्वर्ग प्राप्ति के प्रतिबंधक देव ऋणरूप पाप से पवित्र होना समझना चाहिए) मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं॥20॥
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति।एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥स्वर्ग भोग क्षय पुण्य पर कर इहलोक प्रवेशपड़ चक्कर में भोग के सहते विविध कलेश।।21।।
भावार्थ : वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकामकर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं, अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं॥21॥
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥एक भाव से जो भी जन भजते मुझे सनेमयोग युक्त उनका मैं नित रखता कुशल व क्षेम।।22।।
भावार्थ : जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम (भगवत्स्वरूप की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है और भगवत्प्राप्ति के निमित्त किए हुए साधन की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है) मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ॥22॥
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥जो श्रद्धा के साथ में करते अन्य की भक्तिउनको भी शुभ समझकर मैं देता हूँ शक्ति।।23।।
भावार्थ : हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है॥23॥
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥सब यज्ञों का मैं ही हूँ भोक्ता,प्रभु औ” नाथजो न मुझे पहचानते उन्हें न मिलता साथ।।24।।
भावार्थ : क्योंकि संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ, परंतु वे मुझ परमेश्वर को तत्त्व से नहीं जानते, इसी से गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं॥24॥
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥देव पुजारी देव को पितृभक्त पितुप्राप्तभूत उपासक भूत को ,मेरे भक्त मेरे साथ।।25।।
भावार्थ : देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता (गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में देखना चाहिए)॥25॥
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥पत्र पुष्प फल या कि जल जो मुझे करे प्रदानवे ही मेरे भक्तजन मैं लेता ससम्मान ।।26।।
भावार्थ : जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ॥26॥
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥जो करता जो जीमता करता तप या दानकर अर्पण मुझको हवन होकर निराभिमान।।27।।
भावार्थ : हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर॥27॥
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबंधनैः ।सन्न्यासयोगमुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥ऐसा कर सब कर्मफल से धन से पा मुक्तिहो विरक्त सन्यासमय मुझमें रख अनुरक्ति।।28।।
भावार्थ : इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान के अर्पण होते हैं- ऐसे संन्यासयोग से युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा। ॥28॥
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥सब के प्रति समभाव मम कोई द्वेष न रागजो भजते मुझको वे मम उनमें मम अनुराग।।29।।
भावार्थ : मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट (जैसे सूक्ष्म रूप से सब जगह व्यापक हुआ भी अग्नि साधनों द्वारा प्रकट करने से ही प्रत्यक्ष होता है, वैसे ही सब जगह स्थित हुआ भी परमेश्वर भक्ति से भजने वाले के ही अंतःकरण में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होता है) हूँ॥29॥
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥दुराचारी भी यदि मुझे भजता देकर ध्यानउसे भी तो सदबुद्धि दे , देता मैं प्रतिदान।।30।।
भावार्थ : यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात् उसने भली भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है॥30॥
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥मेरा आश्रय ग्रहण कर पापी नारी शूद्रभी पाते है परम गति ,पार्थ ! न यह विद्रूप।।32।।
भावार्थ : हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं॥32॥
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥फिर ब्रहाम्ण पुण्यात्मा भक्त तथा राजर्षिइनका तो कहना ही क्या !भज तू मुझे सहर्ष।।33।।
भावार्थ : फिर इसमें कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण था राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिए तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन कर॥33॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥भजन यजन औ” नमन कर मन में मुझको देखमुझे पायेगा भक्त हो मत्परायण सविवेक।।34।।
भावार्थ : मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा॥34॥
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥मैं ही कारण जगत का मुझसे सब गतिमानज्ञानी ऐसा समझ नित ,भावित श्रद्धावान।।8।।
भावार्थ : मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत् की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत् चेष्टा करता है, इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त बुद्धिमान् भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं॥8॥
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥मुझको अर्पित प्राण मन आपस में विद्धानकरते हैं चर्चा मेरी करके कई अनुमान।।9।।
भावार्थ : निरंतर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले (मुझ वासुदेव के लिए ही जिन्होंने अपना जीवन अर्पण कर दिया है उनका नाम मद्गतप्राणाः है।) भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरंतर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं॥9॥
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥उन विभोर हो भक्तिरत भक्त जो आते पासको मैं देता बुद्धि गति भक्ति और विश्वास।।10।।
भावार्थ : उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥10॥
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥उन पर करके कृपा मैं उनके मन का वाससब अज्ञान ज तमस हर करता ज्ञान प्रकाश।।11।।
भावार्थ : हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अंतःकरण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ॥11॥
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