Saturday, 28 September 2013

महाभारत का रहस्य

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महाभारत को ‘पंचम वेद’ कहा गया है। यह ग्रंथ हमारे देश के मन-प्राण में बसा हुआ है। यह भारत की राष्ट्रीय गाथा है। इस ग्रंथ में तत्कालीन भारत (आर्यावर्त) का समग्र इतिहास वर्णित है। अपने आदर्श स्त्री-पुरुषों के चरित्रों से हमारे देश के जन-जीवन को यह प्रभावित करता रहा है। इसमें सैकड़ों पात्रों, स्थानों, घटनाओं तथा विचित्रताओं व विडंबनाओं का वर्णन है। प्रत्येक हिंदू के घर में महाभारत होना चाहिए।

महाभारत में कई घटना, संबंध और ज्ञान-विज्ञान के रहस्य छिपे हुए हैं। महाभारत का हर पात्र जीवंत है, चाहे वह कौरव, पांडव, कर्ण और कृष्ण हो या धृष्टद्युम्न, शल्य, शिखंडी और कृपाचार्य हो। महाभारत सिर्फ योद्धाओं की गाथाओं तक सीमित नहीं है। महाभारत से जुड़े शाप, वचन और आशीर्वाद में भी रहस्य छिपे हैं।

दरअसल, महाभारत की कहानी युद्ध के बाद समाप्त नहीं होती है। असल में महाभारत की कहानी तो युद्ध के बाद शुरू होती है। आज तक अश्वत्थामा क्यों जीवित है? क्यों यदुवंशियों के नाश का शाप दिया गया था और क्यों धर्म चल पड़ा था कलियुग की राह पर। महाभारत का रहस्य अभी सुलझना बाकी है। महाभारत युद्ध और उससे जुड़े दस रहस्यों का हमने पता लगाया और जिसे आप शायद ही जानते हों...



18 का रहस्य : कहते हैं कि महाभारत युद्ध में 18 संख्‍या का बहुत महत्व है। महाभारत की पुस्तक में 18 अध्याय हैं। कृष्ण ने कुल 18 दिन तक अर्जुन को ज्ञान दिया। 18 दिन तक ही युद्ध चला। गीता में भी 18 अध्याय हैं। कौरवों और पांडवों की सेना भी कुल 18 अक्षोहिनी सेना थी जिनमें कौरवों की 11 और पांडवों की 7 अक्षोहिनी सेना थी। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी 18 थे। इस युद्ध में कुल 18 योद्धा ही जीवित बचे थे।

सवाल यह उठता है कि सब कुछ 18 की संख्‍या में ही क्यों होता गया? क्या यह संयोग है या इसमें कोई रहस्य छिपा है?


क्या आज भी जीवित हैं अश्वत्थामा : विज्ञान यह नहीं मानता कि कोई व्यक्ति हजारों वर्षों तक जीवित रह सकता है। ज्यादा से ज्यादा 150 वर्ष तक जीवित रहा जा सकता है वह भी इस शर्त पर कि आबोहवा और खानपान अच्छा हो तो। तब ऐसे में कैसे माना जा सकता है कि अश्वत्थामा जीवित होंगे।


क्यों जीवित हैं अश्वत्थामा : महाभारत के युद्ध में अश्वत्‍थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया था जिसके चलते लाखों लोग मारे गए थे। अश्वत्थामा के इस कृत्य से कृष्ण क्रोधित हो गए थे और उन्होंने अश्वत्थामा को शाप दिया था कि 'तू इतने वधों का पाप ढोता हुआ तीन हजार वर्ष तक निर्जन स्थानों में भटकेगा। तेरे शरीर से सदैव रक्त की दुर्गंध नि:सृत होती रहेगी। तू अनेक रोगों से पीड़ित रहेगा।' व्यास ने श्रीकृष्ण के वचनों का अनुमोदन किया।

कहते हैं कि अश्वत्‍थामा इस शाप के बाद रेगिस्तानी इलाके में चला गया था और वहां रहने लगा था। कुछ लोग मानते हैं कि वह अरब चला गया था। उत्तरप्रदेश में प्रचलित मान्यता अनुसार अरब में उसने कृष्ण और पांडवों के धर्म को नष्ट करने की प्रतिज्ञा ली थी।

महाभारत काल में विमान और परमाणु अस्त्र थे? : मोहन जोदड़ो में कुछ ऐसे कंकाल मिले थे जिसमें रेडिएशन का असर था। महाभारत में सौप्तिक पर्व के अध्याय 13 से 15 तक ब्रह्मास्त्र के परिणाम दिए गए हैं। हिंदू इतिहास के जानकारों के मुताबिक 3 नवंबर 5561 ईसापूर्व छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र परमाणु बम ही था?

महाभारत में इसका वर्णन मिलता है- ''तदस्त्रं प्रजज्वाल महाज्वालं तेजोमंडल संवृतम।।'' ''सशब्द्म्भवम व्योम ज्वालामालाकुलं भृशम। चचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा।।'' 8 ।। 10 ।।14।।

अर्थात ब्रह्मास्त्र छोड़े जाने के बाद भयंकर वायु जोरदार तमाचे मारने लगी। सहस्रावधि उल्का आकाश से गिरने लगे। भूतमातरा को भयंकर महाभय उत्पन्न हो गया। आकाश में बड़ा शब्द हुआ। आकाश जलाने लगा पर्वत, अरण्य, वृक्षों के साथ पृथ्वी हिल गई।

अब सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच ही हमारी आज की टेक्नोलॉजी से कहीं ज्यादा उन्नत थी महाभारतकालीन टेक्नोलॉजी?

कौरवों का जन्म एक रहस्य : कौरवों को कौन नहीं जानता। धृतराष्ट्र और गांधारी के 99 पुत्र और एक पुत्री थीं जिन्हें कौरव कहा जाता था। कुरु वंश के होने के कारण ये कौरव कहलाए। सभी कौरवों में दुर्योधन सबसे बड़ा था। गांधारी जब गर्भवती थी, तब धृतराष्ट्र ने एक दासी के साथ सहवास किया था जिसके चलते युयुत्सु नामक पुत्र का जन्म हुआ। इस तरह कौरव सौ हो गए।

गांधारी ने वेदव्यास से पुत्रवती होने का वरदान प्राप्त कर किया। गर्भ धारण कर लेने के पश्चात भी दो वर्ष व्यतीत हो गए, किंतु गांधारी के कोई भी संतान उत्पन्न नहीं हुई। इस पर क्रोधवश गांधारी ने अपने पेट पर जोर से मुक्के का प्रहार किया जिससे उसका गर्भ गिर गया।

वेदव्यास ने इस घटना को तत्काल ही जान लिया। वे गांधारी के पास आकर बोले- 'गांधारी! तूने बहुत गलत किया। मेरा दिया हुआ वर कभी मिथ्या नहीं जाता। अब तुम शीघ्र ही सौ कुंड तैयार करवाओ और उनमें घृत (घी) भरवा दो।'

वेदव्यास ने गांधारी के गर्भ से निकले मांस पिण्ड पर अभिमंत्रित जल छिड़का जिससे उस पिण्ड के अंगूठे के पोरुये के बराबर सौ टुकड़े हो गए। वेदव्यास ने उन टुकड़ों को गांधारी के बनवाए हुए सौ कुंडों में रखवा दिया और उन कुंडों को दो वर्ष पश्चात खोलने का आदेश देकर अपने आश्रम चले गए। दो वर्ष बाद सबसे पहले कुंड से दुर्योधन की उत्पत्ति हुई। फिर उन कुंडों से धृतराष्ट्र के शेष 99 पुत्र एवं दु:शला नामक एक कन्या का जन्म हुआ।

महान योद्धा बर्बरीक : बर्बरीक महान पांडव भीम के पुत्र घटोत्कच और नागकन्या अहिलवती के पुत्र थे। कहीं-कहीं पर मुर दैत्य की पुत्री 'कामकंटकटा' के उदर से भी इनके जन्म होने की बात कही गई है। महाभारत का युद्ध जब तय हो गया तो बर्बरीक ने भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा व्यक्त की और मां को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। बर्बरीक अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर तीन बाण और धनुष के साथ कुरुक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुए।

बर्बरीक के लिए तीन बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरव और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे। यह जानकर भगवान कृष्ण ने ब्राह्मण के वेश में उनके सामने उपस्थित होकर उनसे दान में छलपूर्वक उनका शीश मांग लिया।

बर्बरीक ने कृष्ण से प्रार्थना की कि वे अंत तक युद्ध देखना चाहते हैं, तब कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन मास की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया। भगवान ने उस शीश को अमृत से सींचकर सबसे ऊंची जगह पर रख दिया ताकि वे महाभारत युद्ध देख सकें। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर रख दिया गया, जहां से बर्बरीक संपूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।

राशियां नहीं थीं ज्योतिष का आधार : महाभारत के दौर में राशियां नहीं हुआ करती थीं। ज्योतिष 27 नक्षत्रों पर आधारित था, न कि 12 राशियों पर। नक्षत्रों में पहले स्थान पर रोहिणी था, न कि अश्विनी। जैसे-जैसे समय गुजरा, विभिन्न सभ्यताओं ने ज्योतिष में प्रयोग किए और चंद्रमा और सूर्य के आधार पर राशियां बनाईं और लोगों का भविष्य बताना शुरू किया, जबकि वेद और महाभारत में इस तरह की विद्या का कोई उल्लेख नहीं मिलता जिससे कि यह पता चले कि ग्रह नक्षत्र व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते हैं।

विदेशी भी शामिल हुए थे लड़ाई में : महाभारत के युद्ध में विदेशी भी शामिल हुए थे। एक ओर जहां यवन देश की सेना ने युद्ध में भाग लिया था वहीं दूसरी ओर ग्रीक, रोमन, अमेरिका, मेसिडोनियन आदि योद्धाओं के लड़ाई में शामिल होने का प्रसंग आता है। इस आधार पर यह माना जाता है कि महाभारत विश्व का प्रथम विश्व युद्ध था।

28वें वेदव्यास ने लिखी महाभारत : ज्यादातर लोग यह जानते हैं कि महाभारत को वेदव्यास ने लिखा है लेकिन यह अधूरा सच है। वेदव्यास कोई नाम नहीं, बल्कि एक उपाधि थी, जो वेदों का ज्ञान रखने वाले लोगों को दी जाती थी। कृष्णद्वैपायन से पहले 27 वेदव्यास हो चुके थे, जबकि वे खुद 28वें वेदव्यास थे। उनका नाम कृष्णद्वैपायन इसलिए रखा गया, क्योंकि उनका रंग सांवला (कृष्ण) था और वे एक द्वीप पर जन्मे थे।

दुशासन के पुत्र ने मारा अभिमन्यु को : लोग यह जानते हैं कि अभिमन्यु की हत्या चक्रव्यूह में सात महारथियों द्वारा की गई थी। इन सातों महारथियों ने मिलकर अभिमन्यु की हत्या कर दी थी लेकिन यह सच नहीं है। महाभारत के मुताबिक, अभिमन्यु ने बहादुरी से लड़ते हुए चक्रव्यूह में मौजूद सात में से एक महारथी (दुर्योधन के बेटे) को मार गिराया था। इससे नाराज होकर दुशासन के बेटे ने अभिमन्यु की हत्या कर दी थी।

तीन चरणों में लिखी महाभारत : वेदव्यास की महाभारत को बेशक मौलिक माना जाता है, लेकिन वह तीन चरणों में लिखी गई। पहले चरण में 8,800 श्लोक, दूसरे चरण में 24 हजार और तीसरे चरण में एक लाख श्लोक लिखे गए। वेदव्यास की महाभारत के अलावा भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे की संस्कृत महाभारत सबसे प्रामाणिक मानी जाती है।

अंग्रेजी में संपूर्ण महाभारत दो बार अनूदित की गई थी। पहला अनुवाद 1883-1896 के बीच किसारी मोहन गांगुली ने किया था और दूसरा मनमंथनाथ दत्त ने 1895 से 1905 के बीच। 100 साल बाद डॉ. देबरॉय तीसरी बार संपूर्ण महाभारत का अंग्रेजी में अनुवाद कर रहे हैं।

Friday, 27 September 2013

समुद्र मंथन

हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यताओं में देव-दानवों द्वारा किया गया समुद्र मंथन का प्रसंग खासतौर पर सागर से निकले अद्भुत व बेशकीमती खजाने यानी दिव्य रत्नों, प्राणियों व देवताओं के अलावा खासतौर पर भगवान विष्णु द्वारा देवताओं को अमृत पान कराने के लिए जाना जाता है। दरअसल, हजारों सालों से यह प्रसंग केवल धार्मिक नजरिए से ही नहीं बल्कि इसमें समाए जीवन को साधने वाले सूत्रों के लिए भी अहमियत रखता है। 
 सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
आज भी कई धर्म परंपराएं इसी प्रसंग से जुड़े कई पहलुओं के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं। महाकुंभ में उमड़ता जलसैलाब हो या धन कामना के लिए लक्ष्मी पूजा, सभी के सूत्र समुद्र की गहराई से निकले इन अनमोल रत्नों व उनमें समाए प्रतीकात्मक ज्ञान से जुड़े हैं। 
 
आप इस प्रसंग को धार्मिक रीति-रिवाजों या अन्य किसी जरिए से सुनते हैं, लेकिन कई लोग खासतौर पर युवा पीढ़ी समुद्र मंथन की वजह, उससे निकली बेशकीमती रत्नों व उनकी अनूठी खूबियों और इस घटना से जुड़ी कई रोचक बातों से अनजाह है। 
 
यहीं नहीं, इस दौरान भगवान विष्णु के मोहिनी यानी सुंदरी रूप पर, कामदेव को मात देने वाले भगवान शिव का मोहित होने का पूरा प्रसंग भी बहुत कम लोगों को ही मालूम हैं। 

विष्णु पुराण के मुताबिक एक बार ऋषि दुर्वासा वैकुंठ लोक से आ रहे थे। रास्ते में उन्होंने ऐरावत हाथी पर बैठे इन्द्र को त्रिलोकपति समझ कमल फूल की माला भेंट की। किंतु वैभव में डूबे इन्द्र ने अहंकार में वह माला ऐरावत के सिर पर फेंक दी। हाथी ने उस माला को पैरों तले कुचल दिया। 

दुर्वासा ऋषि ने इसे स्वयं के साथ कमल फूलों पर बैठने वाली कमला यानी लक्ष्मी का भी अपमान माना और इन्द्र को श्रीहीन होने का शाप दिया। पौराणिक मान्यता यह भी है कि इससे इन्द्र दरिद्र हो गया। उसका सारा वैभव गिरकर समुद्र में समा गया। दैत्यों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। 

स्वर्ग का राज्य और वैभव फिर से पाने के लिए भगवान विष्णु ने समुद्र मंथन करने और उससे निकलने वाले अमृत को खुद देवताओं को पिला अमर बनाने का रास्ता सुझाया। साथ ही कहा कि यह काम दैत्यों को भी मनाकर ही करना संभव होगा। 
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
इन्द्रदेव ने इसी नीति के साथ दैत्य राज बलि को समुद्र में समाए अद्भुत रत्नों व साधनों को पाने के लिए समुद्र मंथन के लिए तैयार किया। 

देव-दानवों ने समुद्र मंथन के लिए मंदराचल पर्वत का मथनी और वासुकि नाग को रस्सा (नेति या सूत्र) बनाया। स्वयं भगवान ने कच्छप अवतार लेकर मंदराचल को डुबने से बचाया। असल में, व्यावहारिक नजरिए से इस घटना से जुड़े प्रतीकात्मक सबक हैं। मसलन, संसार समुद्र हैं, इसमें मंदराचल पर्वत की तरह मन को स्थिर करने के लिए कछुए रूपी भगवान की भक्ति का सहारे वासुकि नाग के प्रेम रूपी सूत्र से जीवन का मंथन करें। इस तरह इससे निकला ज्ञान रूपी अमृत पीने वाला ही अमर हो जाता है। 
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
हलाहल (विष) - समुद्र मंथन के दौरान सबसे पहले मंदराचल व कच्छप की पीठ की रगड़ से समुद्र में आग लगी और भयानक कालकूट जहर निकला। सभी देव-दानव और जगत में अफरा-तफरी मच गई। कालों के काल शिव ने इस विष को गले में उतारा और नीलकंठ बने।
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
असल में, इसमें भी छुपा संकेत है। शिव के सिर पर गंगा ज्ञान का ही प्रतीक है यानी जो ज्ञानी होता है, उसमें जीवन के सारे क्लेशों का सामना करने व बाहर निकलने की शक्ति होती है। यही नहीं, इसमें दूसरों के सुख के लिए जीने की भी प्रेरणा हैं। 
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
कामधेनु - कामधेनु की सबसे बड़ी खासियत उपयोगी यज्ञ सामग्री देना थी। ब्रह्मलोक तक पहुंचाने वाली जरूरी चीजें जैसे दूध, घी पाने के लिए ऋषियों को दान की गई। ऋषियों को दान के पीछे यही सीख है कि मेहनत से कमाई धन-दौलत का पहले भलाई में उपयोग करें और संतोष रखें। कामधेनु संतोष का प्रती के है।
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
उच्चै:श्रवा घोड़ा - समुद्र मंथन से अश्वजाति में श्रेष्ठ, चन्द्रमा की तरह सफेद व चमकीला, मजबूत कद-काठी का दिव्य घोड़ा उच्चै:श्रवा प्रकट हुआ, जो दैत्यों के हिस्से गया और इसे दैत्यराज बलि ने ले लिया। 

उच्चै:श्रवा में श्रवा का मतलब ख्याति या कीर्ति भी है। यानी जो मन का स्थिर रख काम करे वह मान व पैसा भी कमाता है। किंतु जो केवल कीर्ति के पीछे भागे उसे फल यानी अमृत नहीं मिलता। दैत्यों के साथ भी ऐसा ही हुआ।

ऐरावत हाथी - चार दांतों वाला अद्भुत हाथी, जिसके दिव्य रूप व डील-डौल के आगे कैलाश पर्वत की महिमा भी कुछ भी नहीं। स्कन्दपुराण के मुताबिक ऐरावत के सिर से मद बह रहा था और उसके साथ 64 और सफेद हाथी भी मंथन से निकले। ऐरावत को देवराज ने प्राप्त किया।  
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
असल में हाथी की आंखे छोटी होती है। इसलिए ऐरावत, पैनी नजर या गहरी सोच का प्रतीक है। संकेत है कि शरीर सुख ही नहीं आत्मा की और भी ध्यान दें।

कौस्तुभ मणि - सभी रत्नों के सबसे श्रेष्ठ व अद्भुत रत्न। इसकी चमक सूर्य के समान होकर त्रिलोक को प्रकाशित करने वाली थी। देवताओं को मिला यह रत्न भगवान विष्णु के स्वरूप अजीत ने अपनी हृदयस्थल पर धारण करने के लिए प्राप्त किया। 

कल्पवृक्ष - स्वर्गलोक की शोभा माने जाने वाला कल्पवृक्ष। इसकी खासियत यह थी कि मांगने वालें को उसकी इच्छा के मुताबिक चीजें देकर हर इच्छा पूरी करता है। 
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
अप्सराएं - सुन्दर वस्त्रों से सजीं और गले में सोने के हार पहनीं, मादक चाल-ढाल व मुद्राओ वाली अप्सराओं को, जिनमें रम्भा प्रमुख थी को देवताओं ने अपनाया। 

महालक्ष्मी - समुद्र मंथन से निकली साक्षात मातृशक्ति व महामाया महालक्ष्मी के तेज व सौंदर्य, रंग-रूप ने सभी को आकर्षित किया। लक्ष्मीजी को मनाने के लिए सभी जतन करने लगे। किसे अपनाएं यह सोच लक्ष्मीजी ऋषियों के पास गई, किंतु ज्ञानी, तपस्वी होने पर क्रोधी होने से उन्हें नहीं चुना। 
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
इसी तरह देवताओं को महान होने पर भी कामी, मार्कण्डेयजी को चिरायु होने पर भी तप में लीन रहने, परशुराम जी को जितेन्द्रिय होने पर भी कठोर होने की वजह से नहीं चुना। 

आखिर में लक्ष्मीजी ने शांत, सात्विक, सारी शक्तियों के स्वामी और कोमल हृदय होने से भगवान विष्णु को वरमाला पहनाई। संदेश यही है कि जिनका मन साफ और सरल होता है उन पर लक्ष्मी प्रसन्न होती है। 
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
चन्द्रमा - स्कन्दपुराण के मुताबिक सागर मंथन से संपूर्ण कलाओं के साथ चन्द्रमा भी प्रकट हुए। ग्रह-नक्षत्रों के ज्ञाता गर्ग मुनि ने बताया कि चन्द्र के प्राकट्य से विजय देने वाला गोमन्त मुहूर्त बना है, जिसमें चन्द्र का गुरु से योग के अलावा बुध, सूर्य, शुक्र, शनि व मंगल से भी चन्द्र की युति शुभ है। 

वारुणी (मदिरा) - सुन्दर आंखों वाली कन्या के रूप में वारुणी देवी प्रकट हुई, जो दैत्यों ने प्राप्त की।
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
पारिजात - इस वृक्ष की खासियत यह बताई गई है कि इसको छूने से ही थकान मिट जाती है। मान्यता है कि स्वर्ग की अप्सराएं व नर्तकियां भी इसे छूकर अपनी थकान मिटाती थीं। हनुमानजी का वास भी इस वृक्ष में माना गया है। भगवान कृष्ण भी स्वर्ग जाकर पारिजात वृक्ष लाने का उल्लेख मिलता है।
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
शंख - समुद्रमंथन में मिलने वाले दिव्य वस्तुओं में शंख भी शामिल था। मंथन से ही उत्पन्न होने से यह लक्ष्मी का भाई भी पुकारा जाता है। इसके कई रूप जैसे दक्षिणावर्ती शंख आदि लक्ष्मी की अपार कृपा देने वाले बताए गए हैं।

धनवन्तरि और अमृत - समुद्र मंथन के अगले चरण में आयुर्वेद के प्रवर्तक और भगवान विष्णु के ही अंशावतार माने गए भगवान धनवन्तरि हाथ में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। दैत्यों की नजर पड़ी। उन्होंने वह कलश छीन लिया। अमृत पीने के लिए वे आपस में झगडऩे भी लगे। 
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
देवताओ को निराश देख भगवान विष्णु ने कहा कि अभी ताकत नहीं युक्ति से काम लें। भगवान ने मोहिनी के रूप में ऐसी सुंदरी का रूप लिया कि दानव मन पर काबू नहीं रख पाए और कामभावना में बहकर मोहिनी की बातों में आ गए। 

मोहिनी अपनी मादक मुद्राओं से दैत्यों को मोहपाश में बांध अमृत कलश का सारा अमृत देवताओं को पिलाने लगी। किंतु राहु नाम दैत्य देवताओं की यह चाल भांपकर देवताओं की ही पंक्ति में सूर्य-चंद्र के बीच बैठ अमृत पी लिया। किंतु अमृत कंठ से नीचे उतरने से पहले ही सूर्य-चंद्र के इशारे पर भगवान विष्णु ने उसे पहचान सुदर्शन चक्र से उसका गला काट दिया। किंतु अमृत के असर से सिर अमर होने से ब्रह्मदेव ने उसे ग्रह के रूप में मान्य किया। 

माना जाता है कि इसी का बदला लेने की मंशा से पूर्णिमा व अमावस्या को राहु, चन्द्र और सूर्य को ग्रस लेता है, जिसे ग्रहण भी पुकारा जाता है।  

देवताओं को अमृत पिलाने के बाद मोहिनी रूप छोड़ मूल स्वरूप में आ गए। इसके बाद अमृत से वंचित दैत्यों के देवताओं पर हमला करने से देवासुर संग्राम हुआ। 

भगवान विष्णु ने महादेव को मोहिनी रूप दिखाया। महादेव ने देखा कि एक सुन्दर बगीचे में फूलों की गेंद से उछल-उछल कर सुंदरी खेल रही हैं। सुंदर साड़ी पहने स्त्री के उछलने से गले में पड़े हार हिल रहे हैं। उसकी कमर पतली है। गालों पर कुण्डल और घुंघराले बाल लटक रहे हैं, जिनको खेलते वक्त वह अपने कोमल हाथों से हटा रही है। वह लचकते-ठुमकते चल रही है। वह सारे जगत को मोहित करते हुए अचानक तिरछी नजर से शिव की ओर देखती है। 
इस पर भगवान शिव उस पर मोहित हो गए। इसी दौरान हाथ से छिटकी गेंद लेने मोहिनी जैसे ही आगे बढ़ी तो हवा उसकी साड़ी उड़ा ले गई। महादेव ने कामासक्त हो उसके पीछे दौड लगा दी। 
सदियों पहले हुए समुद्र मंथन से जुड़ीं ये रोचक बातें शायद आप भी नहीं जानते
इस दौरान मोहिनी की माया में जकड़े महादेव का वीर्यपात हुआ। जबकि माना जाता है कि महादेव का वीर्य अमोघ है। यही वजह है कि यह वीर्य जहां-जहां गिरा वहां सोने-चांदी की खान बन गई। 

वीर्य स्खलन के बाद महादेव को याद आया कि यह तो भगवान की माया है। उन्होंने फौरन आसक्ति से खुद को दूर किया। भगवान विष्णु ने भी मोहिनी रूप से मूल स्वरूप में आकर बताया कि आप महादेव इसीलिए हैं कि जिस माया में पडऩे के बाद फिर कोई उससे पार नहीं पा सकता, उसमें पड़कर भी आप स्वयं बाहर आ गए। इस तरह शिव के मोहिनी रूप का आलिंगन करने के पहले ही हरि और हर का मिलन हुआ। 

इस प्रसंग में शिव ने कामासक्त हो यही संदेश दिया कि ज्ञानी को भी काम नहीं छोड़ता। माया से पार पाना मुश्किल काम है, इसलिए संयम बड़ा ही जरूरी है। 

Thursday, 26 September 2013

आत्मा की गति और दुर्गति?


''न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥
यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपिमाम्।।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥''- गीता

भावार्थ : माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते।...भूत प्रेत, मूर्दा (खुला या दफनाया हुआ अर्थात् कब्र अथवा समाधि) को सकामभाव से पूजने वाले स्वयं मरने के बाद भूत-प्रेत ही बनते हैं।...परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।


हिंदू धर्म ग्रंथों में आत्मा की अनंत यात्रा का विवरण कई तरह से मिलता है। वेद और ‍गीता के अलावा भागवत पुराण, महाभारत, गरूड़ पुराण, कठोपनिषद, विष्णु पुराण, अग्रिपुराण जैसे ग्रंथों में इन बातों का बहुत जानकारी परक विवरण मिलता है। ऐसे नहीं है किस सभी में अलग-अलग विवरण मिलता है। सभी की बातों में थोड़ी बहुत भिन्नता के बाद समानता ही है। असमानता का कारण उसके प्रस्तुति करण है।

हिंदू, जैन और बौद्ध धर्मग्रंथों के अनुसार मरने के बाद मृत आत्मा का अस्तित्व विद्यामान रहता है। उक्त सभी धर्म आत्मा को अजर और अमर मानते हैं। यह आत्मा कर्मों अनुसार अपनी अपनी गति को प्राप्त करती है और फिर पुन: मृत्युलोक में आकर दूसरा जन्म ग्रहण करती है। जन्म और मृत्यु का यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक की आत्मा मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेती। मोक्ष प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को यम-नियम का पालन करते हुए धारणा-ध्यान द्वारा समाधि को प्राप्त करना होता है।



मरने के बाद आत्मा की तीन तरह की गतियां होती हैं- 1. उर्ध्व गति, 2. स्थिर गति और 3. अधोगति। इसे ही अगति और गति में विभाजित किया गया है।

वेदों, उपनिषदों और गीता के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की 8 तरह की गतियां मानी गई है। यह गतियां ही आत्मा की दशा या दिशा तय करती है। इन आठ तरह की गतियों को मूलत: दो भागों में बांटा गया है- 1. अगति, 2. गति।
1. अगति : अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है।
2. गति : गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है।

*अगति के प्रकार : अगति के चार प्रकार है- 1.क्षिणोदर्क, 2.भूमोदर्क, 3. अगति और 4.दुर्गति।

क्षिणोदर्क : क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्यु लोक में आता है और संतों सा जीवन जीता है।

भूमोदर्क : भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है।

अगति : अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता है।

दुर्गति : गति में वह कीट, कीड़ों जैसा जीवन पाता है।

*गति के प्रकार :
 गति के अंतर्गत चार लोक दिए गए हैं:
 1.ब्रह्मलोक, 2.देवलोक, 3.पितृलोक और 4.नर्कलोक। जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों में जाता है।



पुराणों अनुसार आत्मा तीन मार्ग के द्वारा उर्ध्व या अधोलोक की यात्रा करती है।

 ये तीन मार्ग है- 1.अर्चि मार्ग, 2.धूम मार्ग और 3.उत्पत्ति-विनाश मार्ग।

अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक : अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए है।

धूममार्ग पितृलोक : धूममार्ग पितृलोक की यात्रा के लिए है। सूर्य की किरणों में एक 'अमा' नाम की किरण होती है जिसके माध्यम से पितृगण पितृ पक्ष में आते-जाते हैं।

उत्पत्ति-विनाश मार्ग : उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है। यह यात्रा बुरे सपनों की तरह होती है।
जब भी कोई मनुष्य मरता है और आत्मा शरीर को त्याग कर उत्तर कार्यों के बाद यात्रा प्रारंभ करती है तो उसे उपरोक्त तीन मार्ग मिलते हैं। उसके कर्मों के अनुसार उसे कोई एक मार्ग यात्रा के लिए प्राप्त हो जाता है।

शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ॥- गीता
भावार्थ : क्योंकि जगत के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 24 के अनुसार अर्चिमार्ग से गया हुआ योगी।)- जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ ( अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 25 के अनुसार धूममार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी।) फिर वापस आता है अर्थात्‌ जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है॥26॥

Saturday, 14 September 2013

पवित्र वृक्ष

हिंदू धर्म का वृक्ष से गहरा नाता है। हिंदू धर्म को वृक्षों का धर्म कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि हिंदू धर्म में वृक्षों का जो महत्व है वह किसी अन्य धर्म में शायद ही मिले। इस ब्रह्मांड को उल्टे वृक्ष की संज्ञा दी है। पहले यह ब्रह्मांड बीज रूप में था और अब यह वृक्ष रूप में दिखाई देता है। प्रलय काल में यह पुन: बीज रूप में हो जाएगा।

शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति एक पीपल, एक नीम, दस इमली, तीन कैथ, तीन बेल, तीन आंवला और पांच आम के वृक्ष लगाता है, वह पुण्यात्मा होता है और कभी नरक के दर्शन नहीं करता। इसी तरह धर्म शास्त्रों में सभी तरह से वृक्ष सहित प्रकृति के सभी तत्वों के महत्व की विवेचना की गई है।

यहां प्रस्तुत है ऐसे दस वृक्ष जिनकी रक्षा करना हर हिंदू का कर्तव्य है और इनको घर के आसपास लगाने से सुख, शांति और समृद्धि की अनुभूति होती है। किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता।

पीपल देव : हिंदू धर्म में पीपल का बहुत महत्व है। पीपल के वृक्ष को संस्कृत में प्लक्ष भी कहा गया है। वैदिक काल में इसे अश्वार्थ इसलिए कहते थे, क्योंकि इसकी छाया में घोड़ों को बांधा जाता था। अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। औषधीय गुणों के कारण पीपल के वृक्ष को 'कल्पवृक्ष' की संज्ञा दी गई है। पीपल के वृक्ष में जड़ से लेकर पत्तियों तक तैंतीस कोटि देवताओं का वास होता है और इसलिए पीपल का वृक्ष प्रात: पूजनीय माना गया है। उक्त वृक्ष में जल अर्पण करने से रोग और शोक मिट जाते हैं।


पीपल के प्रत्येक तत्व जैसे छाल, पत्ते, फल, बीज, दूध, जटा एवं कोपल तथा लाख सभी प्रकार की आधि-व्याधियों के निदान में काम आते हैं। हिंदू धार्मिक ग्रंथों में पीपल को अमृततुल्य माना गया है। सर्वाधिक ऑक्सीजन निस्सृत करने के कारण इसे प्राणवायु का भंडार कहा जाता है। सबसे अधिक ऑक्सीजन का सृजन और विषैली गैसों को आत्मसात करने की इसमें अकूत क्षमता है।

गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, 'हे पार्थ वृक्षों में मैं पीपल हूं।'
।।मूलतः ब्रह्म रूपाय मध्यतो विष्णु रुपिणः। अग्रतः शिव रुपाय अश्वत्त्थाय नमो नमः।।
भावार्थ-अर्थात इसके मूल में ब्रह्म, मध्य में विष्णु तथा अग्रभाग में शिव का वास होता है। इसी कारण 'अश्वत्त्थ'नामधारी वृक्ष को नमन किया जाता है।-पुराण

पीपल परिक्रमा : स्कन्द पुराण में वर्णित पीपल के वृक्ष में सभी देवताओं का वास है। पीपल की छाया में ऑक्सीजन से भरपूर आरोग्यवर्धक वातावरण निर्मित होता है। इस वातावरण से वात, पित्त और कफ का शमन-नियमन होता है तथा तीनों स्थितियों का संतुलन भी बना रहता है। इससे मानसिक शांति भी प्राप्त होती है। पीपल की पूजा का प्रचलन प्राचीन काल से ही रहा है। इसके कई पुरातात्विक प्रमाण भी है।

अश्वत्थोपनयन व्रत के संदर्भ में महर्षि शौनक कहते हैं कि मंगल मुहूर्त में पीपल वृक्ष की नित्य तीन बार परिक्रमा करने और जल चढ़ाने पर दरिद्रता, दु:ख और दुर्भाग्य का विनाश होता है। पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु तथा समृद्धि प्राप्त होती है। अश्वत्थ व्रत अनुष्ठान से कन्या अखण्ड सौभाग्य पाती है। 

पीपल पूजा : शनिवार की अमावस्या को पीपल वृक्ष की पूजा और सात परिक्रमा करके काले तिल से युक्त सरसो के तेल के दीपक को जलाकर छायादान करने से शनि की पीड़ा से मुक्ति मिलती है। अनुराधा नक्षत्र से युक्त शनिवार की अमावस्या के दिन पीपल वृक्ष के पूजन से शनि पीड़ा से व्यक्ति मुक्त हो जाता है। श्रावण मास में अमावस्या की समाप्ति पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार के दिन हनुमान की पूजा करने से सभी तरह के संकट से मुक्ति मिल जाती है।


बरगद या वटवृक्ष : बरगद को वटवृक्ष कहा जाता है। हिंदू धर्म में वट सावत्री नामक एक त्योहार पूरी तरह से वट को ही समर्पित है। पीपल के बाद बरगद का सबसे ज्यादा महत्व है। पीपल में जहां भगवान विष्णु का वास है वहीं बरगद में ब्रह्मा, विश्णु और शिव का वास माना गया है। हालांकि बरगद को साक्षात शिव कहा गया है। बरगद को देखना शिव के दर्शन करना है।
हिंदू धर्मानुसार पांच वटवृक्षों का महत्व अधिक है। अक्षयवट, पंचवट, वंशीवट, गयावट और सिद्धवट के बारे में कहा जाता है कि इनकी प्राचीनता के बारे में कोई नहीं जानता। संसार में उक्त पांच वटों को पवित्र वट की श्रेणी में रखा गया है। प्रयाग में अक्षयवट, नासिक में पंचवट, वृंदावन में वंशीवट, गया में गयावट और उज्जैन में पवित्र सिद्धवट है।

।।तहं पुनि संभु समुझिपन आसन। बैठे वटतर, करि कमलासन।।
भावार्थ-अर्थात कई सगुण साधकों, ऋषियों, यहां तक कि देवताओं ने भी वट वृक्ष में भगवान विष्णु की उपस्थिति के दर्शन किए हैं।- रामचरित मानस


आम है खास : हिंदू धर्म में जब भी कोई मांगलिक कार्य होते हैं तो घर या पूजा स्थल के द्वार व दीवारों पर आम के पत्तों की लड़ लगाकर मांगलिक उत्सव के माहौल को धार्मिक और वातावरण को शुद्ध किया जाता है।
अक्सर धार्मिक पंडाल और मंडपों में सजावट के लिए आम के पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है। आम के वृक्ष की हजारों किस्में हैं और इसमें जो फल लगता है वह दुनियाभर में प्रसिद्ध है। आम के रस से कई प्रकार के रोग दूर होते हैं।

भविष्यवक्ता शमी : विक्रमादित्य के समय में सुप्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर ने अपने 'बृहतसंहिता'नामक ग्रंथ के 'कुसुमलता'नाम के अध्याय में वनस्पति शास्त्र और कृषि उपज के संदर्भ में जो जानकारी प्रदान की है उसमें शमीवृक्ष अर्थात खिजड़े का उल्लेख मिलता है।
वराहमिहिर के अनुसार जिस साल शमीवृक्ष ज्यादा फूलता-फलता है उस साल सूखे की स्थिति का निर्माण होता है। विजयादशमी के दिन इसकी पूजा करने का एक तात्पर्य यह भी है कि यह वृक्ष आने वाली कृषि विपत्ती का पहले से संकेत दे देता है जिससे किसान पहले से भी ज्यादा पुरुषार्थ करके आनेवाली विपत्ती से निजात पा सकता है। 

बिल्व वृक्ष : बिल्व अथवा बेल (बिल्ला) विश्व के कई हिस्सों में पाया जाने वाला वृक्ष है। भारत में इस वृक्ष का पीपल, नीम, आम, पारिजात और पलाश आदि वृक्षों के समान ही बहुत अधिक सम्मान है। हिन्दू धर्म में बिल्व वृक्ष भगवान शिव की अराधना का मुख्य अंग है। 
धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण इसे मंदिरों के पास लगाया जाता है। बिल्व वृक्ष की तासीर बहुत शीतल होती है। गर्मी की तपिश से बचने के लिए इसके फल का शर्बत बड़ा ही लाभकारी होता है। यह शर्बत कुपचन, आंखों की रोशनी में कमी, पेट में कीड़े और लू लगने जैसी समस्याओं से निजात पाने के लिए उत्तम है। औषधीय गुणों से परिपूर्ण बिल्व की पत्तियों मे टैनिन, लोह, कैल्शियम, पोटेशियम और मैग्नेशियम जैसे रसायन पाए जाते हैं।

बेल वृक्ष की उत्पत्ति के संबंध में 'स्कंदपुराण' में कहा गया है कि एक बार देवी पार्वती ने अपनी ललाट से पसीना पोछकर फेंका, जिसकी कुछ बूंदें मंदार पर्वत पर गिरीं, जिससे बेल वृक्ष उत्पन्न हुआ। इस वृक्ष की जड़ों में गिरिजा, तना में महेश्वरी, शाखाओं में दक्षयायनी, पत्तियों में पार्वती, फूलों में गौरी और फलों में कात्यायनी वास करती हैं।

कहा जाता है कि बेल वृक्ष के कांटों में भी कई शक्तियाँ समाहित हैं। यह माना जाता है कि देवी महालक्ष्मी का भी बेल वृक्ष में वास है। जो व्यक्ति शिव-पार्वती की पूजा बेलपत्र अर्पित कर करते हैं, उन्हें महादेव और देवी पार्वती दोनों का आशीर्वाद मिलता है। 'शिवपुराण' में इसकी महिमा विस्तृत रूप में बतायी गयी है।


अशोक वृक्ष : अशोक वृक्ष को हिन्दू धर्म में बहुत ही पवित्र और लाभकारी माना गया है। अशोक का शब्दिक अर्थ होता है- किसी भी प्रकार का शोक न होना। मांगलिक एवं धार्मिक कार्यों में अशोक के पत्तों का प्रयोग किया जाता है।
माना जाता है कि अशोक वृक्ष घर में लगाने से या इसकी जड़ को शुभ मुहूर्त में धारण करने से मनुष्य को सभी शोकों से मुक्ति मिल जाती है। अशोक का वृक्ष वात-पित्त आदि दोष, अपच, तृषा, दाह, कृमि, शोथ, विष तथा रक्त विकार नष्ट करने वाला है। यह रसायन और उत्तेजक है। इसके उपयोग से चर्म रोग भी दूर होता है। अशोक का वृक्ष घर में उत्तर दिशा में लगाना चाहिए जिससे गृह में सकारात्मक ऊर्जा का संचारण बना रहता है। घर में अशोक के वृक्ष होने से सुख, शांति एवं समृद्धि बनी रहती है एवं अकाल मृत्यु नहीं होती। 

अशोक का वृक्ष दो प्रकार का होता है- एक तो असली अशोक वृक्ष और दूसरा उससे मिलता-जुलता नकली अशोक वृक्ष। नकली अशोक वृक्ष देवदार की जाति का लंबा वृक्ष होता है। इसके पत्ते आम के पत्तों जैसे होते हैं। इसके फूल सफेद, पीले रंग के और फल लाल रंग के होते हैं। 

असली अशोक का वृक्ष आम के पेड़ जैसा छायादार वृक्ष होता है। इसके पत्ते 8-9 इंच लंबे और दो-ढाई इंच चौड़े होते हैं। इसके पत्ते शुरू में तांबे जैसे रंग के होते हैं इसीलिए इसे 'ताम्रपल्लव' भी कहते हैं। इसके नारंगी रंग के फूल वसंत ऋतु में आते हैं, जो बाद में लाल रंग के हो जाते हैं। सुनहरे लाल रंग के फूलों वाला होने से इसे 'हेमपुष्पा' भी कहा जाता है। 


नारियल का वृक्ष : हिन्दू धर्म में नारियल के बगैर तो कोई मंगल कार्य संपन्न होता ही नहीं। नारियल का खासा धार्मिक महत्व है। 60 फुट से 100 फुट तक ऊंचा नारियल का पेड़ लगभग 80 वर्षों तक जीवित रहता है। 15 वर्षों के बाद पेड़ में फल लगते हैं।
पूजा के दौरान कलश में पानी भरकर उसके ऊपर नारियल रखा जाता है। यह मंगल प्रतीक है। नारियल का प्रसाद भगवान को चढ़ाया जाता है। 

पेड़ का प्रत्येक भाग किसी न किसी काम में आता है। ये भाग किसानों के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इसे घरों के पाट, फर्नीचर आदि बनाए जाते हैं। पत्तों से पंखे, टोकरियां, चटाइयां आदि बनती हैं। इसकी जटा से रस्सी, चटाइयां, ब्रश, जाल, थैले आदि अनेक वस्तुएं बनती हैं। यह गद्दों में भी भरा जाता है। नारियल का तेल सबसे ज्यादा बिकता है।

नारियल के पानी में पोटेशियम अधिक मात्रा में होता है। इसे पीने से शरीर में किसी भी प्रकार की सुन्नता नहीं रहती। अगर आप पाचन की समस्या से ग्रसित हैं तो 1 गिलास नारियल का पानी लें, उसमें अन्ननास का जूस मिलाएं और पूरे 9 दिन तक नाश्ते से पहले उसे पीएं। इसे पीने के बाद 2 घंटे तक किसी भी प्रकार का भोजन न करें और न ही कोई अन्य पेय पीएं।

नारियल के गूदे का इस्तेमाल नाड़ियों की समस्या, कमजोरी, स्मृति नाश, पल्मनरी अफेक्शन्स (फेफड़ों के रोगों) के उपचार के लिए किया जाता है। यह त्वचा संबंधी तथा आंतड़ियों संबंधी समस्याओं को भी दूर करता है। अस्थमा से पीड़ित व्यक्तियों को भी नारियल पानी पीने की सलाह दी जाती है।


अनार : अनार के वृक्ष से जहां सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण होता हैं वहीं इस वृक्ष के कई औषधीय गुण भी हैं। पूजा के दौरान पंच फलों में अनार की गिनती की जाती है।
अनार को दाडम या दाड़िम आदि अलग-अलग नाम से जानते हैं। अनार का वृक्ष भी बहुत ही सुंदर होता है जिसे बगिया की शोभा के लिए भी लगाया जा सकता है। इसकी कली, फूल और फल भी कुछ कम सुंदर नहीं होते। 

अनार का प्रयोग करने से खून की मात्रा बढ़ती है। इससे त्वचा सुंदर व चिकनी होती है। रोज अनार का रस पीने से या अनार खाने से त्वचा का रंग निखरता है। अनार के छिलकों के एक चम्मच चूर्ण को कच्चे दूध और गुलाब जल में मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरा दमक उठता है। अपच, दस्त, पेचिश, दमा, खांसी, मुंह में दुर्गंध आदि रोगों में अनार लाभदायक है। इसके सेवन से शरीर में झुर्रियां या मांस का ढीलापन समाप्त हो जाता है।


नीम का वृक्ष : नीम एक चमत्कारी वृक्ष माना जाता है। नीम जो प्रायः सर्व सुलभ वृक्ष आसानी से मिल जाता है। नीम को संस्कृत में निम्ब कहा जाता है। यह वृक्ष अपने औषधीय गुणों के कारण पारंपरिक इलाज में बहुपयोगी सिद्ध होता आ रहा है। चरक संहिता और सुश्रुत संहिता जैसे प्राचीन चिकित्सा ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। 
निम्ब शीतों लघुग्राही कतुर कोअग्नी वातनुत।
अध्यः श्रमतुटकास ज्वरारुचिक्रिमी प्रणतु ॥

अर्थात नीम शीतल, हल्का, ग्राही पाक में चरपरा, हृदय को प्रिय, अग्नि, वाट, परिश्रम, तृषा, अरुचि, क्रीमी, व्रण, कफ, वामन, कोढ़ और विभिन्न प्रमेह को नष्ट करता है।

नीम के पेड़ का औषधीय के साथ-साथ धार्मिक महत्त्व भी है। मां दुर्गा का रूप माने जाने वाले इस पेड़ को कहीं-कहीं नीमारी देवी भी कहते हैं। इस पेड़ की पूजा की जाती है। कहते हैं कि नीम की पत्तियों के धुएं से बुरी और प्रेत आत्माओं से रक्षा होती है।


केले का पेड़ : केले का पेड़ काफी पवित्र माना जाता है और कई धार्मिक कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी को केले का भोग लगाया जाता है। केले के पत्तों में प्रसाद बांटा जाता है। माना जाता है कि समृद्धि के लिए केले के पेड़ की पूजा अच्छी होती है।
केला हर मौसम में सरलता से उपलब्ध होने वाला अत्यंत पौष्टिक एवं स्वादिष्ट फल है। केला रोचक, मधुर, शक्तिशाली, वीर्य व मांस बढ़ाने वाला, नेत्रदोष में हितकारी है। पके केले के नियमित सेवन से शरीर पुष्ट होता है। यह कफ, रक्तपित, वात और प्रदर के उपद्रवों को नष्ट करता है।

केले में मुख्यतः विटामिन-ए, विटामिन-सी,थायमिन, राइबो-फ्लेविन, नियासिन तथा अन्य खनिज तत्व होते हैं। इसमें जल का अंश 64.3 प्रतिशत ,प्रोटीन 1.3 प्रतिशत, कार्बोहाईड्रेट 24.7 प्रतिशत तथा चिकनाई 8.3 प्रतिशत है।


Tuesday, 10 September 2013

ये कैसा धर्म..?

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार मानव जीवन कई कई योनियों के बाद संभव हो पाता है, और ऐसा माना जाता है कि मानव , भगवान् की सबसे सफल , अशचार्यजनक और सबसे सम्रध रचना है ! अगर हम इस बात को मानते हैं तब हमें उस भगवान् का धन्यवाद भी करना चाहिए जिसने हमें इस रूप में दुनिया में भेजा है ! लोग धन्यवाद करते भी हैं , पूजा पाठ करके ! भले ही विभिन्न रूप में करते हैं लेकिन करते तो हैं ! लेकिन क्या यही और इतना ही काफी है ?  हम इंसान का रूप पाकर इस मद में अंधे हो जाते हैं और भगवान् द्वारा प्रदान करी गयी सुविधाओं का दुरूपयोग कर उन्हें कम करते जा रहे हैं  ! भगवान् भी कभी कभी अपनी इस रचना पर गर्व करने की बजाय दुःख करता होगा कि मैंने ये क्या कर दिया ?


पिछले कुछ समय से इस तरह की घटनाएं विश्व भर में घटित हो रही हैं जो मन को अन्दर तक हिला देती हैं ! भारत में पाकिस्तान से आये कुछ हिन्दू भारतीय नागरिक बनना चाहते हैं , क्यों ? क्योंकि पाकिस्तान में उनकी जान और माल की हिफाज़त का उन्हें कोई  भरोसा नहीं है ! उनकी लड़कियों और महिलाओं की इज्ज़त महफूज़ नहीं है ! क्या एक  राष्ट्र इतना कुत्सित हो सकता है कि वो अपने ही नागरिकों की हिफाज़त न कर सके ? अब कहाँ हैं इस्लाम की हिमायत करने वाले ठेकेदार  ? और ऐसा सिर्फ पाकिस्तान में ही नहीं , जहां जहां मुस्लिम आबादी बाहुल्य में है वहां यही हालात  हैं !  असल में पाकिस्तान में हिन्दू ही नहीं बल्कि कोई भी सुरक्षित नहीं है ! क्या विश्व समुदाय को ये नहीं दीखता है ? क्या कश्मीर में पल पल अपनी टांग अडाने वाले मानव अधिकार आयोग को पकिस्तान्ब की कारगुजारी समझ में नहीं आती है ? आप स्वयं समझ सकते हैं ! कश्मीर तो भारत का हिस्सा था , वहां मुस्लिम अधिसंख्यक थे उन्होंने वहां से हिन्दुओं को भगा दिया तो पाकिस्तान से भगाने में  क्या दिक्कत रही होगी  ?  भारत की सरकार पहले भी “मूर्ति ” बनकर बैठी रही और आज भी बैठी है ! स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि  हम हिजड़ों की औलाद हैं ? हमारे बस का कुछ भी नहीं ! हमारे यहाँ  शाहरुख़ खान को कोई कुछ कह दे तो पाकिस्तान,  भारत में अल्पसंख्यकों की हिफाज़त का सवाल उठा  देता है लेकिन हमारे हिन्दू बिरादरी के लोग पाकिस्तान छोड़कर आ जाते हैं तो भी भारत  की सरका कुछ नहीं करती  ? हिंदुस्तान की पहिचान कृष्णा और राम से है , ये हमें समझना होगा ! हम धर्म निरपेक्ष है लेकिन हमारी संस्कृति भारतीय संस्कृति है , हिन्दू संस्कृति  है ! हम पाकिस्तान जैसे असफल , भूखे और आतंकवादी राष्ट्र से ये उम्मीद नहीं कर सकते कि वो अल्पसंख्यकों पर हो रहे जुल्मो सितम के खिलाफ कोई  कार्यवाही करेगा लेकिन हम विश्व समुदाय को आगाह कर सकते हैं कि  वो उस पर दबाव डाले ! पाकिस्तान से आये हिन्दू जब अपनी अपनी कहानी बयान करते हैं तब आँखों से आंसू आने लगते हैं कि क्या ऐसा भी हो सकता है ? क्या इंसान ऐसा भी कर सकता है ? इन कुछ हिन्दुओं की स्थिति को देखकर पाकिस्तान में रह रहे लगभग पच्चीस लाख हिन्दुओं की बेचारगी का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है कि वहां मानवता कैसे रहती होगी ? क्या इस्लाम इसकी इज़ाज़त देता है ? या सब कुछ बस इस्लाम ही है और मानवता कुछ भी नहीं ? कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे पाकिस्तान में इंसान नहीं हैवान बसते हैं ! मैं मानता हूँ कि वहां  भी कुछ इंसान है लेकिन उनकी हैवानों के सामने कोई औकात नहीं रही होगी ! मैं मानता हूँ कि  इस्लाम के सच्चे हितेषी भी वहां होंगे लेकिन कठमुल्लों के सामने उनकी हैसियत कमजोर रह गयी होगी ? लेकिन इस तरह तो मानवता ख़त्म हो जायेगी ?


पता नहीं क्यूँ आज ऐसा लगता है धर्म , मज़हब शायद इंसान से ज्यादा महत्वपूर्ण हो चला है ! और एशिया में तो शायद और भी ज्यादा ! खाड़ी  के कुछ  देशों में हर रोज़ के विस्फोट , शायद एक दिन सभ्यता को ही नष्ट न कर दें ! पाकिस्तान और अफगानिस्तान में आपस में लड़ते झगड़ते तालिबान और कठमुल्ले शायद इंसान को वहां रहने ही नहीं देना चाहते ! ये शायद पाषाण  युग है , जो जीतेगा वही जीएगा  ! बाकी को न जीने का हक़ है और न इस दुनिया में रहने का हक़ ! दुनिया को जंग का मैदान बना दिया है लोगों ने ! अगर कैसे भी दौनों  कोरिया अपनी अपनी बात पर अड़ गए  और कल को युद्ध हो जाए तब क्या होगा , अनुमान लगाया जा सकता है ? आज इंसान शायद जंगली पशुओं से मुकाबला करना चाहता है कि  कौन जीतेगा ? और जो जीतेगा वो दूसरे  को मारेगा और उसका खून पिएगा,  उसका मांस खायेगा ! ओह ! कैसी दुनिया है ये ?

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कभी श्री लंका में सिंहलीज़  , तमिल हिन्दुओं का सफाया कर देना चाहते हैं तो कभी बंगला देश हमारे एहसानों के बदले हमारी कौन  को ही खतम कर देना चाहता है ! हालाँकि १ ० ० करोड़ से ज्यादा और दुनिया भर में फैले हुए हिन्दुओं को इतनी आसानी से ख़त्म नहीं किया जा सकता ! वो दिन और थे जब हिन्दू लाचार था , कायर था  !  हमारी सरकारें किसी मजबूरी से बंधी हो सकती हैं हम नहीं ! ये भी सत्य है कि  हिन्दू आज भी सहनशील है , मानवता का पुजारी है और इसी वज़ह से वो हिंदुस्तान से गुलाम के रूप में जाकर मॉरिशस और फिजी में सत्ता तक पहुँचता है , इसी वज़ह से माइक्रो सॉफ्ट जैसे संसथान में ४ ० प्रतिशत से ज्यादा अपना योगदान देता है ! तभी सुनीता विलियम्स और कल्पना चावला जैसे बेटियां उसके घर की शोभा बनती हैं ! तभी ३ ५ प्रतिशत नासा के कर्मचारी  भारतीय और हिन्दू होते हैं ! इसीलिए , क्योंकि हमारे लिए मानवता सर्वश्रेष्ठ है , धर्म नहीं !


हालाँकि ये मानव प्रवृति है कि  वो दुसरे को न तो खुश देख सकता है और न ही प्रसन्न ! भगवान् गौतम बुद्ध ने हमेशा अहिंसा  का  नारा  दिया किन्तु बुद्ध धर्म के अनुयायियों ने जिस तरह का कत्ले आम मचाया  हुआ है वो कहीं से भी इस धर्म की शिक्षाओं पर खरा नहीं उतरता ! श्री लंका में सिंहलीज़  लोगों ने प्रभाकरन के बहाने लाखों तमिलों का खून बहा दिया , ये कैसा धर्म है भाई ? बर्मा में बोद्धों ने रिंगानिया समुदाय के मुस्लिमों को घरों में जिन्दा जला दिया , ये कैसी धरम की शिक्षा है भाई ? ये कैसा धर्म है ? और आज भी यही सब चल रहा है ! मुझे नहीं मालूम कि  आज तक कभी किसी हिन्दू राजा  ने या हिन्दुओं ने दूसरे धर्म  के मानने वालों से कभी इस तरह का सलूक किया हो या देश से भगाया हो ? संभव है इतिहास में ऐसा कुछ हुआ हो लेकिन मैं नहीं जानता !


आज शायद दुनिया को कुछ लोग जितना खूबसूरत  बना देना चाहते हैं , ये धर्मों के ठेकेदार उसी दुनिया को बदबूदार , खतरनाक और कुरूप करने में लगे हुए हैं ! कल्पना करिए उन लोगों के बारे में , उनकी जिंदगी के बारे में जो हर पल मौत को देखते होंगे ! जो हर पल अपनी बहन बेटियों की इज्ज़त लुट जाने के डर  से सहमे सहमे से रहते होंगे ! कल्पना करिए उन मासूमों की जिंदगी की जिनकी आँखों में सुनहरे कल के सपने होंगे और जिन्हें अनायास ही , अकस्मात ही मौत अपने आगोश में ले लेती होगी ! जहां जिन्दगी पल पल और कदम कदम रोती  होगी  ! ओह  !  क्या धर्म जरुरी है ? और अगर जरुरी है तो क्या ऐसा धर्म  जरुरी है मानव के लिए ?


देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान

कितना बदल गया इनसान

सूरज न बदला चांद न बदला ना बदला रे आसमान

कितना बदल गया इनसान

Saturday, 7 September 2013

यौगिक चक्र

यौगिक चक्र

चक्रः चक्र आध्यात्मिक शक्तियों के केन्द्र हैं। स्थूल शरीर में ये चक्र चर्मचक्षुओं से नहीं दिखते हैं। क्योंकि ये चक्र हमारे सूक्ष्म शरीर में होते हैं। फिर भी स्थूल शरीर के ज्ञानतंतुओं-स्नायुकेन्द्रों के साथ समानता स्थापित करके उनका निर्देश किया जाता है।
हमारे शरीर में सात चक्र हैं और उनके स्थान निम्नांकित हैं-
1. मूलाधार चक्रः गुदा के नज़दीक मेरूदण्ड के आखिरी बिन्दु के पास यह चक्र होता है।
2. स्वाधिष्ठान चक्रः नाभि से नीचे के भाग में यह चक्र होता है।
3. मणिपुर चक्रः यह चक्र नाभि केन्द्र पर स्थित होता है।
4. अनाहत चक्रः इस चक्र का स्थान हृदय मे होता है।
5. विशुद्धाख्य चक्रः कंठकूप में होता है।
6. आज्ञाचक्रः यह चक्र दोनों भौहों (भवों) के बीच में होता है।
7. सहस्रार चक्रः सिर के ऊपर के भाग में जहाँ शिखा रखी जाती है वहाँ यह चक्र होता है।

कुछ उपयोगी मुद्राएँ

प्रातः स्नान आदि के बाद आसन बिछा कर हो सके तो पद्मासन में अथवा सुखासन में बैठें। पाँच-दस गहरे साँस लें और धीरे-धीरे छोड़ें। उसके बाद शांतचित्त होकर निम्न मुद्राओं को दोनों हाथों से करें। विशेष परिस्थिति में इन्हें कभी भी कर सकते हैं।
लिंग मुद्रा
लिंग मुद्राः दोनों हाथों की उँगलियाँ परस्पर
भींचकर अन्दर की ओर रहते हुए अँगूठे को
ऊपर की ओर सीधा खड़ा करें।
लाभः शरीर में ऊष्णता बढ़ती है, खाँसी मिटती
है और कफ का नाश करती है।


शून्य मुद्राः सबसे लम्बी उँगली (मध्यमा) को
शून्य मुद्रा
अंदपर की ओर मोड़कर उसके नख के ऊपर वाले
भाग पर अँगूठे का गद्दीवाला भाग स्पर्श करायें। शेष
तीनों उँगलियाँ सीधी रहें।
लाभः कान का दर्द मिट जाता है। कान में से पस
निकलता हो अथवा बहरापन हो तो यह मुद्रा 4 से 5
मिनट तक करनी चाहिए।
पृथ्वी मुद्रा
पृथ्वी मुद्राः कनिष्ठिका यानि सबसे छोटी उँगली को
अँगूठे के नुकीले भाग से स्पर्श करायें। शेष तीनों
उँगलियाँ सीधी रहें।
लाभः शारीरिक दुर्बलता दूर करने के लिए, ताजगी
व स्फूर्ति के लिए यह मुद्रा अत्यंत लाभदायक है।
इससे तेज बढ़ता है।
सूर्यमुद्रा
सूर्यमुद्राः अनामिका अर्थात सबसे छोटी उँगली के
पास वाली उँगली को मोड़कर उसके नख के ऊपर
वाले भाग को अँगूठे से स्पर्श करायें। शेष तीनों
उँगलियाँ सीधी रहें।
लाभः शरीर में एकत्रित अनावश्यक चर्बी एवं स्थूलता
को दूर करने के लिए यह एक उत्तम मुद्रा है।
ज्ञान मुद्रा
ज्ञान मुद्राः तर्जनी अर्थात प्रथम उँगली को अँगूठे के
नुकीले भाग से स्पर्श करायें। शेष तीनों उँगलियाँ
सीधी रहें।
लाभः मानसिक रोग जैसे कि अनिद्रा अथवा अति
निद्रा, कमजोर यादशक्ति, क्रोधी स्वभाव आदि हो तो
यह मुद्रा अत्यंत लाभदायक सिद्ध होगी। यह मुद्रा
करने से पूजा पाठ, ध्यान-भजन में मन लगता है।
वरुण मुद्रा
इस मुद्रा का प्रतिदिन 30 मिनठ तक अभ्यास करना चाहिए।
      वरुण मुद्राः मध्यमा अर्थात सबसे बड़ी उँगली के मोड़ कर
उसके नुकीले भाग को अँगूठे के नुकीले भाग पर स्पर्श करायें। शेष तीनों उँगलियाँ सीधी रहें।
लाभः यह मुद्रा करने से जल तत्त्व की कमी के कारण होने
वाले रोग जैसे कि रक्तविकार और उसके फलस्वरूप होने
वाले चर्मरोग व पाण्डुरोग (एनीमिया) आदि दूर होते है।
प्राण मुद्राः कनिष्ठिका, अनामिका और अँगूठे के ऊपरी भाग
प्राण मुद्राः
को परस्पर एक साथ स्पर्श करायें। शेष दो उँगलियाँ
सीधी रहें।
लाभः यह मुद्रा प्राण शक्ति का केंद्र है। इससे शरीर
निरोगी रहता है। आँखों के रोग मिटाने के लिए व चश्मे
का नंबर घटाने के लिए यह मुद्रा अत्यंत लाभदायक है।
वायु मुद्राः तर्जनी अर्थात प्रथम उँगली को मोड़कर
ऊपर से उसके प्रथम पोर पर अँगूठे की गद्दी
वायु मुद्राः
स्पर्श कराओ। शेष तीनों उँगलियाँ सीधी रहें।
लाभः हाथ-पैर के जोड़ों में दर्द, लकवा, पक्षाघात,
हिस्टीरिया आदि रोगों में लाभ होता है। इस मुद्रा
के साथ प्राण मुद्रा करने से शीघ्र लाभ मिलता है।
अपानवायु मुद्राः अँगूठे के पास वाली पहली उँगली
को अँगूठे के मूल में लगाकर अँगूठे के अग्रभाग की
बीच की दोनों उँगलियों के अग्रभाग के साथ मिलाकर
सबसे छोटी उँगली (कनिष्ठिका) को अलग से सीधी
रखें। इस स्थिति को अपानवायु मुद्रा कहते हैं। अगर
अपानवायु मुद्रा
किसी को हृदयघात आये या हृदय में अचानक
पीड़ा होने लगे तब तुरन्त ही यह मुद्रा करने से
हृदयघात को भी रोका जा सकता है।
लाभः हृदयरोगों जैसे कि हृदय की घबराहट,
हृदय की तीव्र या मंद गति, हृदय का धीरे-धीरे
बैठ जाना आदि में थोड़े समय में लाभ होता है।
पेट की गैस, मेद की वृद्धि एवं हृदय तथा पूरे
शरीर की बेचैनी इस मुद्रा के अभ्यास से दूर होती है। आवश्यकतानुसार हर रोज़ 20 से 30 मिनट तक इस मुद्रा का अभ्यास किया जा सकता है।