Wednesday, 31 July 2013

ॐ शब्द ब्रह्म को जाने

जीवन का मूल उद्देश्य है-शिवत्व की प्राप्ति। उपनिषद् का आदेश है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है-हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें ? इसी का उत्तर है यह ‘¬ नमः शिवाय’ का मंत्र। ‘¬ नमः शिवाय’ एक मंत्र ही नहीं महामंत्र है। यह महामंत्र इसलिए है कि यह आत्मा का जागरण करता है। हमारी आध्यात्मिक यात्रा इससे सम्पन्न होती है। यह किसी कामना पूर्ति का मंत्र नहीं है। यह मंत्र है जो कामना को समाप्त कर सकता है, इच्छा को मिटा सकता है। एक मंत्र होता है कामना की पूर्ति करने वाला और एक मंत्र होता है कामना को मिटाने वाला। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। कामना पूर्ति और इच्छा पूर्ति का स्तर बहुत नीचे रह जाता है। जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि वही है, जिससे कामना और इच्छा का अभाव हो सके। एक कहानी आती है- एक अत्यन्त गरीब के पास एक साधु आया। वह व्यक्ति गरीब तो था पर था संतोषी एवं भगवान का अटूट विश्वास रखने वाला। उसकी गरीबी को देखकर साधु ने करुणार्द्र होकर उसे मांगने के (कुछ भी) लिए कहा, लेकिन गरीब व्यक्ति ने कुछ भी नहीं मांगा। तो साधु बोला कि मैं किसी को देने की सोच लेता हूं उसे पूरा करना मेरा कर्तव्य समझता हूं। अतः मैं तुझे पारस दे देता हूं जिससे तुम अपनी गरीबी को दूर कर सकोगे। तब उस गरीब व्यक्ति ने निवेदन किया, ‘हे महाराज। मुझे इन सांसारिक सुखों की चाहना नहीं है। मुझे तो वह चाहिए जिसे पाकर आपने पारस को ठुकराया है जो पारस से भी ज्यादा कीमती है वह मुझे दो।’
                                        
जब व्यक्ति के अन्तर की चेतना जाग जाती है तब वह कामना पूर्ति के पीछे नहीं दौड़ता। वह उसके पीछे दौड़ता है तथा उस मंत्र की खोज करता है जो कामना को काट दे। ‘नमः शिवाय’ इसीलिए महामंत्र है कि इससे इच्छा की पूर्ति नहीं होती अपितु इच्छा का स्रोत ही सूख जाता है। जहां सारी इच्छाएं समाप्त, सारी कामनाएं समाप्त, वहां व्यक्ति निष्काम हो जाता है। पूर्ण निष्काम भाव ही मनुष्य का प्रभु स्वरूप है।

इस मंत्र से ऐहिक कामनाएं भी पूरी होती हैं किन्तु यह इसका मूल उद्देश्य नहीं है। इसकी संरचना अध्यात्म जागरण के लिए हुई है, कामनाओं की समाप्ति के लिए हुई है। यह एक तथ्य है कि जहां बड़ी उपलिब्ध होती है, वहां आनुषंगिक रूप में अनेक छोटी उपलब्धियां भी अपने आप हो जाती है। छोटी उपलब्धि में बड़ी उपलब्धि नहीं होती किन्तु बड़ी उपलब्धि में छोटी उपलब्धि सहज हो जाती हैं। कोई व्यक्ति लक्ष्मी के मंत्र की आराधना करता है तो उससे धन बढ़ेगा। सरस्वती के मंत्र की आराधना से ज्ञान बढ़ेगा किन्तु अध्यात्म का जागरण या आत्मा का उन्नयन नहीं होगा क्योंकि छोटी उपलब्धि के साथ बड़ी उपलब्धि नहीं मिलती। जो व्यक्ति बड़ी उपलब्धि के लिए चलता है, रास्ते में उसे छोटी-छोटी अनेक उपलब्धियां प्राप्त हो जाती हे। यह मंत्र महामंत्र इसलिए है कि इसके साथ कोई मांग जुड़ी हुई नहीं है। इसके साथ केवल जुड़ा है - आत्मा का जागरण, चैतन्य का जागरण, आत्मा के स्वरूप का उद्घाटन और आत्मा के आवरणों का विलय। जिस व्यक्ति को परमात्मा उपलब्ध हो गया, जिस व्यक्ति को आत्म जागरण उपलब्ध हो गया, उसे सब कुछ उपलब्ध हो गया, कुछ भी शेष नहीं रहा। इस महामंत्र के साथ जुड़ा हुआ है-केवल चैतन्य का जागरण। सोया हुआ चैतन्य जाग जाए। सोया हुआ प्रभु, जो अपने भीतर है वह जाग जाए, अपना परमात्मा जाग जाए। जहां इतनी बड़ी स्थिति होती है वहां सचमुच यह मंत्र महामंत्र बन जाता है।

मंत्र क्या है ? 

मंत्र शब्दात्मक होता है। उसमें अचित्य शक्ति होती है। हमारा सारा जगत् शब्दमय है। शब्द को ब्रह्म माना गया है। मन के तीन कार्य हैं-स्मृति, कल्पना एवं चिन्तन। मन प्रतीत की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिन्तन करता है। किन्तु शब्द के बिना न स्मृति होती हैं, न कल्पना होती है और न चिन्तन होता है। सारी स्मृतियां, सारी कल्पनाएं और सारे चिन्तन शब्द के माध्यम से चलते हैं। हम किसी की स्मृति करते हैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है। उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान लेते हैं। इसी तरह कल्पना एवं चिन्तन में भी शब्द का बिम्ब ही सहायक होता है। यदि मन को शब्द का सहारा न मिले, यदि मन को शब्द की वैशाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता। मन लंगड़ा है। मन की चंचलता वास्तव में ध्वनि की, शब्द की या भाषा की चंचलता है। मन को निर्विकल्प बनाने के लिए शब्द की साधना बहुत जरूरी है।
स्थूल रूप से शब्द दो प्रकार का होता है- (1) जल्प (2) अन्तर्जल्प। हम बोलते हैं, यह है जल्प। जल्प का अर्थ है-स्पष्ट वचन, व्यक्त वचन। हम बोलते नहीं किन्तु मन में सोचते हैं, मन में विकल्प करते हैं, यह है अन्तर्जल्प। मुुंह बंद है, होंठ स्थिर है, न कोई सुन रहा है फिर भी मन में आदमी बोलता चला जा रहा है, यह है अन्तर्जल्प। सोचने का अर्थ है-भीतर बोलना। सोचना और बोलना दो नहीं है। सोचने के समय में भी हम बोलते हैं और बोलने के समय में भी हम सोचते हैं। यदि हम साधना के द्वारा निर्विकल्प या निर्विचार अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें शब्द को समझकर उसके चक्रव्यूह को तोड़ना होगा। शब्द उत्पत्तिकाल में सूक्ष्म होता है और बाहर आते-आते स्थूल बन जाता है। जो सूक्ष़्म है वह हमें सुनाई नहीं देता, जो स्थूल है वही हमें सुनाई देता है। ध्वनि विज्ञान के अनुसार दो प्रकार की ध्वनियां होती है-श्रव्य ध्वनि और अश्रव्य ध्वनि। अश्रव्य ध्वनि अर्थात् (Ultra Sound Super Sonic) यह सुनाई नहीं देती। हमारा कान केवल 32470 कंपनों को ही पकड़ सकता है। कम्पन तो अरबों होते हैं किन्तु कान 32470 आवृत्ति के कम्पनों को ही पकड़ सकता है। यदि हमारा कान सूक्ष्म तरंगों को पकड़ने लग जाए तो आदमी जी नहीं सकता। यह समूचा आकाश ध्वनि तरंगों से प्रकम्पित है। अनन्तकाल से इस आकाश में भाषा-वर्गणा के पुदगल बिखरे पड़े हैं। बोलते समय भाषा वर्गणा के पुदगल निकलते हैं और आकाश में जाकर स्थिर हो जाते हैं। हजारों लाखों वर्षों तक वे उसी रूप में रह जाते हैं। मनुष्य जो सोचता है, उसके मनोवर्गणा के पुद्गल करोड़ों वर्षों तक आकाश में अपनी आकृतियां बनाए रख सकते हैं। यह सारा जगत तरंगों से आंदोलित हैं। विचारों की तरंगे, कर्म की तरंगे, भाषा और शब्द की तरंगे पूरे आकाश में व्याप्त है। मंत्र एक प्रतिरोधात्मक शक्ति है, मंत्र एक कवच है और मंत्र एक महाशक्ति है। शक्तिशाली शब्दों का समुच्चय ही मंत्र है। शब्द में असीम शक्ति होती है।
ॐ नमः शिवाय’ महामंत्र में तीन शब्द है।  नमः शिवाय। इसमें पांच अक्षर है। इसे पंचाक्षरी महामंत्र भी कहते हैं। पंचाक्षरी इसलिए कि  अक्षरातीत है। ‘नमः शिवाय’ में पांच अक्षर है।  को ब्रह्म, प्रणव आदि नामों से पुकारा जाता है। उपनिषदों में कहा गया है-  ‘ओम् इति ब्रह्म’ ओम् ब्रह्म है। पातंजल योगसूत्र में कहा गया है- ‘तस्य वाचक प्रणवः’ प्रणव ईश्वर का वाचक है। ब्रह्म एक अखण्ड अद्वैत होने पर भी परब्रह्म और शब्द ब्रह्म इन दो विभागों में कल्पित किया गया है। शब्द ब्रह्म को भली भांति जान लेने पर परब्रह्म की प्राप्ति होती है। 

                                           ‘शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति’

शब्द ब्रह्म को जानना और उसे जानकर उसका अतिक्रमण करना यही मुमुक्षु का एकमात्र लक्ष्य है। जिसे औंकार कहते हैं यही शब्द ब्रह्म है। इस चराचर विश्व के जो वास्तविक आधार हैं, जो अनादि, अनन्त और अद्वितीय हैं तथा जो सच्चिदानंद स्वरूप है उस निर्गुण निराकार सत्ता को हमारे शास्त्रों ने ब्रह्म की संज्ञा दी है। इसी ब्रह्म का वाचक शब्द ओम है।

ब्रह्म इस सृष्टि में निमित्त कारण (Efficient Cause) ही नहीं अपितु उपादान कारण (Material Cause) भी है। प्रारम्भ में एकमात्र ब्रह्म ही थे। उनकी इच्छा हुई ‘एकोऽहम बहुस्याम’ और उन्होंने ही अपने आपको इस जीव जगत के रूप में प्रकट किया। जैसे मकड़ी अपने अन्दर के ही तन्तुओं से जाला बुनती है। अतः यह विश्व-ब्रह्माण्ड ब्रह्म से भिन्न नहीं है। ब्रह्म ही विभिन्न रूपों मे प्रतिभासित हो रहे हैं। अतएव ब्रह्म का वाचक होने के कारण ‘ओम’ ईश्वर अवतार तथा जीव जगत सभी का वाचक हुआ। इस प्रकार यह शब्द निर्गुण-निराकार ब्रह्म का बोध कराता है तो सगुण-साकार ईश्वर का भी बोध कराता है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण, जिस रूप में भी ब्रह्म अपने आपको प्रकाशित कर रहा है, ओम उन सब का बोध कराता है।

इसकी महिमा में वेदान्त नेति-नेति कहकर मौन हो जाता है। योगीजन इस शब्द की महिमा में गाते-गाते नहीं थकते। गोरखनाथजी महाराज कहते है:- 

‘शब्द ही ताला शब्द ही कूंची। 
शब्द ही शब्द समाया। 
शब्द ही शब्द सूं परचा हुआ। 
शब्द ही शब्द जगाया।  

यह शब्द ‘ओम्’ है। विश्व के सभी धर्मों में इस शब्द की महिमा गाई गई है। बाइबिल में लिखा है - On the beginning was the work and the word with god and the word was god. यह 'Word' ओम ही है। मुस्लिम धर्म में इस शब्द को ‘कलमा’ ‘बांग’, ‘आवाजे खुदा’ आदि नामों से पुकारा गया है।

शास्त्रों में वर्णित है कि आंेकार से ही इस विश्व की सृष्टि हुई है। ‘शब्द’ पद का वैदिक अर्थ है - सूक्ष्म भाव (Subtitle Idea) सूक्ष्म भाव स्थूल पदार्थ का सूक्ष्म रूप है। इन्हीं भावों का आश्रय लेकर सभी स्थूल पदार्थों की सृष्टि होती है। भाव-शब्द ही स्थूल रूपों का जन्मदाता है। मन में उठने वाला प्रत्येक भाव अथवा मुख से उच्चरित होने वाला प्रत्येक शब्द विशेष - विशेष कंपन मात्र हैं। इन कम्पनों में खास-खास आकृति बनाने की क्षमता रहती है। वायस फिगर (Voice Figure) पुस्तक की लेखिका मिसेज वाट्स हूग्स ने अपने Eidophone यंत्र द्वारा इसे प्रदर्शित कर दिया है। उच्चारण के साथ ही आकृति बन जाती है। अतः किसी भी स्थूल पदार्थ की सृष्टि होने से पूर्व उससे सम्बन्धित भाव विद्यमान रहता है और वही भाव स्थूलाकार में परिणत हो जाता है। सारी सृष्टि के लिए यही नियम लागू होता है। विभिन्न प्रकार के भावों या शब्दों से ही इस विचित्र बहुरूपात्मक विश्व की सृष्टि हुई है। विश्व निर्माणकारी ये सभी भाव एक ही शब्द अथवा भाव से निःसृत हुए हैं और वह शब्द है ‘ओम’। ‘ओम्’ सभी भावों की समष्टि है।
अब प्रश्न उठता है कि इसका क्या प्रमाण है कि विश्व निर्माणकारी सभी भाव ‘ओम’ से ही निःसृत हुए हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है - ब्रह्मज्ञ पुरुषों की प्रत्यक्ष अनुभूति। ब्रह्मज्ञ पुरुषों को समाधि की अवस्था में अनुभव होता है कि जगत् शब्दमय है और फिर वह शब्द गंभीर ओंकार ध्वनि में लीन हो जाता है। विभिन्न स्थितियां इस प्रकार वर्णित करते हैं योगी जना ‘घर्र-घर्र की आवाज, घंटा, वीणा की आवाज, सारेगम प द नी सा के स्वरों की आवाज, शंख ध्वनि’, इसके पश्चात् ¬ कार की ध्वनि, फिर उसके बाद कोई स्वर नहीं। शब्दातीत स्थिति को अनादि नाद कहकर पुकारते हैं। यहां जाकर मन प्रत्यक्ष ब्रह्म में लीन हो जाता है। सब निर्वाक, स्थिर। समाधि से लौटते वक्त भी जब पहली अनुभूति होती है तो ओंकार शब्द ही सुनाई पड़ता है। यह अनुभूतिजन्य विवरण सभी ब्रह्मज्ञ पुरुषों का एक सा ही है।
‘ओम्’ शब्द पूर्ण शब्द है। ओम् में अ, उ, म तीन अक्षर हैं। इन तीन ध्वनियों के मेल से ‘ओम’ बनता है। इसका प्रथम अक्षर ‘अ’ सभी शब्दों का मूल है, चाहे शब्द किसी भी भाषा का हो। ‘अ’ जिव्हा मूल अर्थात् कण्ठ से उत्पन्न होता है। ‘म’ ओठों की अन्तिम ध्वनि है। ‘उ’ कण्ठ से प्रारम्भ होकर मुंह भर में लुढ़कता हुआ ओठों में प्रकट होता है। इस प्रकार ओम् शब्द के द्वारा शब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रिया प्रकट हो जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि कण्ठ से लेकर ओंठ तक जितनी भी प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हो सकती है, ओम में उन सभी ध्वनियों का समावेश है। फिर इन्ही ध्वनियों के मेल से शब्द बनते हैं। अतः ओम् शब्दों की समष्टि है।

अब संक्षेप में आंेकार की रचना भी समझनी जरूरी है। ओंकार में अकार, उकार, मकार, बिन्दु, अर्द्ध चन्द्र, निरोधिका, नाद, नादान्त शक्ति, व्यापिनी, समना तथा उन्मना इतने अंश हैं। ओंकार के ये कुल 12 अंश हैं। ओंकार के दो स्वरूप हैं। अकार, उकार एवं मकार अशुद्ध विभाग हैं। स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण इन तीन भूमिकाओं में इन तीन अवयवों का कार्य होता है। जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति ये तीन अवस्थाएं प्रणव की पहली तीन मात्राओं में विद्यमान है। तुरीय या तुरीयातीत अवस्था चतुर्थ अवयव से शुरू होती है। अकार, उकार एवं मकार तीन शक्तियों के प्रतीक हैं - उकार ब्रह्मा का प्रतीक है तथा मकार महेश का प्रतीक है। प्रणव के चतुर्थ अवयव ‘बिन्दु’ से लेकर उन्मना तक कुल 9 अंश प्रणव के शुद्ध विभाग हैं। बिन्दु अर्द्धमात्रा रूपी अवयव है। बिन्दु में एक मात्रा का अर्द्धाशं है, अर्द्ध चन्द्र में बिन्दु का अर्द्धांश है तथा निरोधिका में अर्द्धचन्द्र अर्द्धांश है। इस प्रकार यह क्रम प्रतिपद में उसके पूर्ववर्ती मात्रा का अर्द्धांश बनता चला जाता है। यह क्रम समना तक चलता है। ये अंश या मात्राएं किसकी हैं ? ये वास्तव में मन की मात्राएं हैं। मन की गति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती चली जाती है। उन्मना अमात्र है, उसकी कोई मात्रा नहीं होती क्योंकि वहां मन की समाप्ति हो जाती है। मन की मात्रा होती है, विशुद्ध चैतन्य की मात्रा नहीं होती। योगी का परम उद्देश्य है कि वह स्थूल मात्रा से क्रमशः सूक्ष्ममात्रा में होते हुए अमात्रक स्थिति में पहुंच जाए। उन्मना में न मन है, न मात्रा है, न काल है, न देश है, न देवता है। वह शुद्ध चिदानन्द - भूमि है।


ओंकार की इन स्थितियों में एक विकास क्रम है। बिन्दु का अनुभव भ्रूमध्य के ऊर्ध्व में होता है। ब्रह्मरन्ध्र की अन्तिम सीमा तक नाद का अनुभव चलता है। नादान्त भेद हो जाने पर स्थूल दृष्टि से देह का भेद हो जाता है। अतः नाद का अवलम्बन लेकर ही नादान्त तक पहुंचा जाता है। नाद साधना ही वस्तुतः ओंकार की साधना है। इस साधना में पारंगत होने पर केवल नाद का ही अतिक्रमण नहीं होता अपितु शून्य का भी अतिक्रमण होता है और अन्त में मन का भी अतिक्रमण होता है, जिसका फल है परमेश्वर से तादात्म्य लाभ।

इस प्रकार ओम् एक महामंत्र है। इसका जप और इसके अर्थ का चिन्तन समाधि-लाभ का उपाय है। वाचक एवं वाच्य का अभेद सम्बन्ध होता है। ज्यों ही वाचक शब्द का स्मरण अथवा उच्चारण किया जाता है त्यों ही वह उसके वाच्य पदार्थ का बिम्ब मन में ला देता है। ‘यत ध्यायति तत् भवति’ के अनुसार ‘ओम्’ शब्द के जप एवं स्मरण से हमारे मन में ब्रह्मभाव जाग्रत होता है। मन में यह भाव जगाए रहने के लम्बे अभ्यास के बाद अन्त में मन ब्रह्म भाव में अवस्थित हो जाता है। अतः ‘ओम्’ सत्यं, शिवं, सुन्दरम् तक पहुंचने की कुंजी है।

वाक्-शक्ति के चार प्रकार हैं - बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती एवं परा। बैखरी वाक् शब्द का निम्नतम स्तर है। इसको पकड़कर क्रमशः परावाक् पर्यन्त उठने का प्रयोजन है। बैखरी से तात्पर्य हमारी स्थूल ध्वनि से है। जब हम बोल-बोल कर जप करते है, यह बैखरी वाणी कहलाती है। जब हम मन ही मन जप या स्मरण करते हैं इसे मध्यमा कहा जाता है। जब हम शब्द और उसके अर्थ दोनों को देखते हुए स्मरण करते हैं, उसे पश्यन्ती वाणी कहते हैं। जहां न बोलना है, न देखना है अर्थात् निर्विचार एवं निर्विकल्प स्थिति होती है, उस स्थिति में एक शून्य भाषा व्यापक होती है उसे परावाक् कहते हैं। बैखरी जप में जपकर्ता को यह अहसास रहता है कि मैं जप कर रहा हूं। मध्यमा में साधक का यह अहसास छूट जाता है कि मैं जप कर रहा हूं। उसका जप अजपा जाप हो जाता है। बिना किसी प्रयास के एवं बिना किसी अहं भाव के जप चलता रहता है। मध्यमा में हृदय से जाप होता है, मस्तिष्क से नहीं होता। जागृति समाप्त हो जाती है। मध्यमा वाक् के अभ्यास से नाद-श्रवण होने लगता है। पश्यन्ती में साधक ओंकार को आज्ञाचक्र से ऊपर बिल्कुल ललाट के मध्य में कल्पना से ज्योतिस्वरूप बिन्दु को देखता है। यहां देखना ही बोलना है। परास्थिति में देखना भी छूट जाता है। केवल शून्य में ठहरना होता है। यहां ठहरने का आधार आनंद की अनुभूति होती है। इस प्रकार शब्दातीत परमपद का साक्षात्कार करने के लिए शब्द का आश्रय लेकर ही शब्द राज्य का भेद करना होता है। जप-साधना में शब्द को पकड़कर शब्दातीत परब्रह्म पद में जाने का उपदेश है।

‘¬ नमः शिवाय’ महामंत्र के प्रथम भाग ‘¬’ की रचना एवं जप की विधि की चर्चा के पश्चात् यह देखना है कि इस महामंत्र में ‘नमः शिवाय’ शब्दों का समावेश करने का क्या प्रयोजन है। नमः शब्द नमस्कार का ही छोटा रूप है। यह महामंत्र नमस्कार मंत्र भी है। प्रणव की अवधारणा में कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ की साधना करते-करते साधक कहीं अहंकार का शिकार न हो जाए, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘नमः शिवाय’ शब्दों से विनम्र समर्पण है। अहंकार एवं ममकार जब तक विलीन नहीं होते तब तक हमारी सीमा समाप्त नहीं हो सकती। सान्तता समाप्त हुए बिना अनन्त की अनुभूति नहीं होती। अनन्त की अनुभूति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है - अहंकार का विलय और ममकार का विलय।
‘नमः शिवाय’ नमन है, समर्पण है-अपने पूरे व्यक्तित्व का समर्पण। इससे अहंकार विलीन हो जाता है। जहां नमन होता है वहां अहंकार टिक नहीं सकता। अहंकार निःशेष और सर्वथा समाप्त। जहां शिव है वहां ममकार नहीं हो सकता। ममकार पदार्थ के प्रति होता है। शिव तो परम चेतन स्वरूप है। अपना ही चेतनरूप शिव है। चेतना के प्रति ममकार नहीं होता। शिव के प्रति नमन्, शिव के प्रति हमारा समर्पण, एकीभाव जैसे-जैसे बढ़ता है, भय की बात समाप्त होती चली जाती है। भय तब होता है जब हमें कोई आधार प्राप्त नहीं होता। आधार प्राप्त होने पर भय समाप्त हो जाता है। साधना के मार्ग में जब साधक अकेला होता है, तब न जाने उसमें कितने भय पैदा हो जाते हैं किन्तु जब ‘नमः शिवाय’ जैसे शक्तिशाली मंत्र का आधार लेकर चलता है तब उसके भय समाप्त हो जाते हैं। वह अनुभव करता है कि मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ शिव है। साधक के पास एक व्यक्ति ने कहा, ‘आप अकेले हैं, मैं कुछ देर आपका साथ देने के लिए आया हूंँ। साधक ने कहा, ‘मैं अकेला कहां था ? तुम आए और मैं अकेला हो गया। मैं मेरे प्रभु के साथ था।’

नमः शिवाय’ शिव के प्रति नमन, शिव के प्रति समर्पण, शिव के साथ तादात्म्य है। यह अनुभूति अभय पैदा करती है। रमण महर्षि से पूछा गया - ‘ज्ञानी कौन ? ‘उत्तर दिया जो अभय को प्राप्त हो गया हो।’ ‘नमः शिवाय’ अभय के द्वारा ज्ञान की ज्योति जलाता है। अतः मंत्र सृष्टा ऋषियों ने ‘¬’ के साथ नमः शिवाय संयुक्त कर ‘¬’ रूपी ब्रह्म को ‘शिव’ रूपी जगत के साथ मिलाया है।

मंत्र के तीन तत्त्व होते हैं -शब्द, संकल्प और साधना। मंत्र का पहला तत्त्व है- शब्द। शब्द मन के भावों को वहन करता है। मन के भाव शब्द के वाहन पर चढ़कर यात्रा करते हैं। कोई विचार सम्प्रेषण का प्रयोग करे, कोई सजेशन या ऑटोसजेशन का प्रयोग करे, उसे सबसे पहले ध्वनि का, शब्द का सहारा लेना पड़ता है। वह व्यक्ति अपने मन के भावों को तेज ध्वनि में उच्चारित करता है, जोर-जोर से बोलता है, ध्वनि की तरंगे तेज गति से प्रवाहित होती है, फिर वह उच्चारण को मध्यम करता है, धीरे-धीरे करता है, मंद कर देता है। पहले ओठ, दांत, कंठ सब अधिक सक्रिय थे, वे मंद हो जाते हैं। ध्वनि मंद हो जाती है। होठों तक आवाज पहुंचती है पर बाहर नहीं निकलती। जोर से बोलना या मंद स्वर में बोलना - दोनों कंठ के प्रयत्न हैं। ये स्वर तंत्र के प्रयत्न हैं। जहां कंठ का प्रयत्न होता है वह शक्तिशाली तो होता है किन्तु बहुत शक्तिशाली नहीं होता। उसका परिणाम आता है किन्तु उतना परिणाम नहीं आता जितना हम इस मंत्र से उम्मीद करते हैं मंत्र की परिणति या मूर्घन्य तब वास्तविक परिणाम आता है जब कंठ की क्रिया समाप्त हो जाती है और मंत्र हमारे दर्शन केन्द्र में पहुंच जाता है। यह मानसिक क्रिया है। जब मंत्र की मानसिक क्रिया होती है, मानसिक जप होता है, तब न कंठ की क्रिया होती है, न जीभ हिलती है, न होंठ एवं दांत हिलते हैं। स्वर-तंत्र का कोई प्रकंपन नहीं होता। मन ज्योति केन्द्र में केन्द्रित हो जाता है प्श्यन्ति वाक शैली में पूरे मंत्र को ललाट के मध्य में देखने का अभ्यास किया जाए। उच्चारण नहीं, केवल मंत्र का दर्शन, मंत्र का साक्षात्कार, मंत्र का प्रत्यक्षीकरण। इस स्थति में मंत्र की आराधना से वह सब उपलब्ध होता है जो उसका विधान है।

मानसिक जप के बिना मन की स्वस्थता की भी हम कल्पना नहीं कर सकते। मन का स्वास्थ्य हमारे चैतन्य केन्द्रों की सक्रियता पर निर्भर है। जब हमारे दर्शन केन्द्र और ज्योति केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं तब हमारी शक्ति का स्रोत फूटता है और मन शक्तिशाली बन जाता है। नियम है-जहां मन जाता है, वहां प्राण का प्रवाह भी जाता है। जिस स्थान पर मन केन्द्रित होता है, प्राण उस ओर दौड़ने लगता है। जब मन को प्राण का पूरा सिंचन मिल जाता है और शरीर के उस भाग के सारे अवयवों को, अणुओं और परमाणुओं को प्राण और मन का सिंचन मिलता है तब वे सारे सक्रिय हो जाते हैं। जो कण सोये हुए हैं, वे जाग जाते हैं। चैतन्य केन्द्र को जाग्रत हुआ तब मानना चाहिए जब उस स्थान पर मंत्र ज्योति में डूबा हुआ दिखाई पड़ने लग जाए। जब मंत्र बिजली के अक्षरों मंे दिखने लग जाए तब मानना चाहिए वह चैतन्य केन्द्र जाग्रत हो गया है।

मंत्र का पहला तत्त्व है-शब्द और शब्द से अशब्द। शब्द अपने स्वरूप को छोड़कर प्राण में विलीन हो जाता है, मन में विलीन हो जाता है तब वह अशब्द बन जाता है।
मंत्र का दूसरा तत्त्व है-संकल्प। साधक की संकल्प शक्ति दृढ़ होनी चाहिए। यदि संकल्प शक्ति दुर्बल है तो मंत्र की उपासना उतना फल नहीं दे सकती जितने फल की अपेक्षा की जाती है। मंत्र साधक में विश्वास की दृढ़ता होनी चाहिए। उसकी श्रद्धा और इच्छाशक्ति गहरी होनी चाहिए। उसका आत्म-विश्वास जागृत होना चाहिए। साधक में यह विश्वास होना चाहिए कि जो कुछ वह कर रहा है अवश्य ही फलदायी होगा। वह अपने अनुष्ठान में निश्चित ही संभवतः सफल होगा। सफलता में काल की अवधि का अन्तर आ सकता है। किसी को एक महीने में, किसी को दो चार महीनों में और किसी को वर्ष भर बाद ही सफलता मिले। बारह महीने में प्रत्येक साधक को मंत्र का फल अवश्य ही मिलना चालू हो जाता है।

संकल्प तत्त्व में श्रद्धा समन्वित है। श्रद्धा का अर्थ है-तीव्रतम आकर्षण। केवल श्रद्धा के बल पर जो घटित हो सकता है, वह श्रद्धा के बिना घटित नहीं हो सकता। पानी तरल है। जब वह जम जाता है, सघन हो जाता है तब वह बर्फ बन जाता है। जो हमारी कल्पना है, जो हमारा चिन्तन है वह तरल पानी है। जब चिन्तन का पानी जमता है तब वह श्रद्धा बन जाता है। तरल पानी में कुछ गिरेगा तो वह पानी को गंदला बना देगा। बर्फ पर जो कुछ गिरेगा, वह नीचे लुढ़क जायेगा, उसमें घुलेगा नहीं। जब हमारा चिन्तन श्रद्धा में बदल जाता है तब वह इतना घनीभूत हो जाता है कि बाहर का प्रभाव कम से कम होता है।
मंत्र का तीसरा तत्त्व है-साधना। शब्द भी है, आत्म विश्वास भी है, संकल्प भी है तथा श्रद्धा भी है, किन्तु साधना के अभाव में मंत्र फलदायी नहीं हो सकता। जब तक मंत्र साधक आरोहण करते-करते मंत्र को प्राणमय न बना दे, तब तक सतत साधना करता रहे। वह निरन्तरता को न छोड़े। योगसूत्र में पातंजलि कहते हैं - ‘दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारा सेवितः।’ ध्यान की तीन शर्त है-दीर्घकाल, निरन्तरता एवं निष्कपट अभ्यास। साधना में निरन्तरता और दीर्घकालिता दोनों अपेक्षित है। अभ्यास को प्रतिदिन दोहराना चाहिए। आज आपने ऊर्जा का एक वातावरण तैयार किया। कल उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं तो वह ऊर्जा का वायुमण्डल स्वतः शिथिल हो जाता है। एक मंत्र साधक तीस दिन तक मंत्र की आराधना करता है और इकतीसवें दिन वह उसे छोड़ देता है और फिर बतीसवें दिन उसे प्रारम्भ करता है तो मंत्र साधना शास्त्र कहता है कि उस मंत्र साधक की साधना का वह पहला दिन ही मानना चाहिएं
साधना का काल दीर्घ होना चाहिए। ऐसा नहीं कि काल छोटा हो। दीर्घकाल का अर्थ है जब तक मंत्र का जागरण न हो जाए, मंत्र चैतन्य न हो, जो मंत्र शब्दमय था वह एक ज्योति के रूप में प्रकट न हो जाए, तब तक साधना चलती रहनी चाहिए।

जब तक साधना में मंत्र के तीनों तत्त्वों का समुचित योग नहीं होता तब तक साधक को साधना की सफलता नहीं मिल सकती।
अध्यात्म की शैव-धारा में ‘¬ नमः शिवाय’ एक महामंत्र है। इस महामंत्र की सिद्धि जीवन की सिद्धि है। इस मंत्र की साधना से भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों उपलब्धियां प्राप्त होती है। आवश्यकता है उसे अपना कर अनुभव करने की।

सत्यम शिवम सुन्दरम्

शिव ही सर्वस्य  

शिव आदि देव है। वे महादेव हैं, सभी देवों में सर्वोच्च और महानतमें शिव को ऋग्वेद में रुद्र कहा गया है। पुराणों में उन्हें महादेव के रूप में स्वीकार किया गया है। श्वेता श्वतरोपनिषद् के अनुसार ‘सृष्टि के आदिकाल में जब सर्वत्र अंधकार ही अंधकार था। न दिन न रात्रि, न सत् न असत् तब केवल निर्विकार शिव (रुद्र) ही थे।’ शिव पुराण में इसी तथ्य को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है -
‘एक एवं तदा रुद्रो न द्वितीयोऽस्नि कश्चन’ सृष्टि के आरम्भ में एक ही रुद्र देव विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं होता। वे ही इस जगत की सृष्टि करते हैं, इसकी रक्षा करते हैं और अंत में इसका संहार करते हैं। ‘रु’ का अर्थ है-दुःख तथा ‘द्र’ का अर्थ है-द्रवित करना या हटाना अर्थात् दुःख को हरने (हटाने) वाला। शिव की सत्ता सर्वव्यापी है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्म-रूप में शिव का निवास है- 
‘अहं शिवः शिवश्चार्य, त्वं चापि शिव एव हि।
सर्व शिवमयं ब्रह्म, शिवात्परं न किञचन।।
में शिव, तू शिव सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। इसीलिए कहा गया है- ‘शिवोदाता, शिवोभोक्ता शिवं सर्वमिदं जगत्।
शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं। सब चाहते हैं अखण्ड आनंद को। शिव का अर्थ है आनंद। शिव का अर्थ है-परम मेंगल, परम कल्याण।
सामान्यतः ब्रहमा को सृष्टि का रचयिता, विष्णु को पालक और शिव को संहारक माना जाता है। परन्तु मूलतः शक्ति तो एक ही है, जो तीन अलग-अलग रूपों में अलग-अलग कार्य करती है। वह मूल शक्ति शिव ही हैं। स्कंद पुराण में कहा गया है-ब्रह्मा, विष्णु, शंकर (त्रिमूर्ति) की उत्पत्ति माहेश्वर अंश से ही होती है। मूल रूप में शिव ही कर्त्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं। सृष्टि का आदि कारण शिव है। शिव ही ब्रह्म हैं। ब्रहम की परिभाषा है - ये भूत जिससे पैदा होते हैं, जन्म पाकर जिसके कारण जीवित रहते हैं और नाश होते हुए जिसमें प्रविष्ट हो जाते हैं, वही ब्रह्म है। यह परिभाषा शिव की परिभाषा है। ध्यान रहे जिसे हम शंकर कहते हैं - वह एक देवयोनि है जैसे ब्रहमा एवं विष्णु हैं। उसी प्रकार। शंकर शिव के ही अंश हैं। पार्वती, गणेश, कार्तिकेय आदि के परिवार वाले देवता का नाम शंकर है। शिव आदि तत्त्व है, वह ब्रह्म है, वह अखण्ड, अभेद्य, अच्छेद्य, निराकार, निर्गुण तत्त्व है। वह अपरिभाषेय है, वह नेति-नेति है।
शिव की स्वतंत्र निजी शक्ति के दो शाश्वत रूप उसकी प्रापंचिक अभिव्यक्ति में प्रतीत होते हैं, जिन्हें विद्या तथा अविद्या कह सकते हैं। इस प्रापंचिक ब्रहमाण्ड व्यवस्था में परमात्मा के पारमार्थिक आनंदमय स्वरूप को प्रकट करने वाली शक्ति विद्या कहलाती है तथा परमात्मा की प्रापंचिक विभिन्ननाओं के आवरण से अवगुंठित शक्ति अविद्या कहलाती है। परमात्मा की अभिन्न शक्ति के ही दोनों रूप हैं। नाना आकारों में उसकी ही अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति उसकी शक्ति का विलास है, लीला है। यह ब्रह्माण्ड परमात्मा की निजी शक्ति का व्यावहारिक पक्ष है। पारमार्थिक पक्ष में परमात्मा पूर्णतया एक है-एकं द्वितीयो नास्ति।’ उसके चरम सत् और चित् में कोई भेद नहीं, उसके स्वभाव में कोई द्वैत एवं सापेक्षिता नहीं। यहां वह चरम अनुभव की अवस्था में है जिसमें स्वनिर्मित ज्ञाता-ज्ञेय का कोई भेद नहीं है। परमात्मा का यह स्वरूप प्रकाश स्वरूप है।
परमात्मा की शक्ति का विमर्श पक्ष उसे व्यावहारिक स्तर पर आत्म-चेतन बना देता है। अतः विमर्श-शक्ति शिव की आत्म चेतनता पर आत्मोद्घाटन की शक्ति मानी जाती है। यहां परमात्मा ज्ञाता ज्ञेय के रूप में अपने आपको विभाजित कर लेता है। परमात्मा की यह वस्तुगत आत्म-चेतना है जो विभिन्न स्तरों के भोक्ता या भोग्य पदार्थों के रूप में दृष्टिगोचर होती है। काल, दिक्, कारणत्व एवं सापेक्षिकता चारों परमात्मा के वस्तुगत रूप हैं। परमात्मा की विमर्श शक्ति को माया शक्ति भी कहा जाता है।
इसी तथ्य को गोरख ने ‘सिद्ध सिद्धान्त-पद्धति’ में इस प्रकार वर्णित किया है- ‘शिवस्याभ्यन्तरे शक्तिः शक्तेरभ्यन्तरेशिवः।’ शक्ति शिव में निहित है शिव शक्ति में निहित हैं। चन्द्र और चन्द्रिका के समान दोनों अभिन्न हैं। शिव को शक्ति की आत्मा कहा जा सकता है और शक्ति को शिव का शरीर। शिव को शक्ति का पारमार्थिक रूप कहा जा सकता है और शक्ति को शिव का प्रापंचिक रूप। शिव से भिन्न और स्वतंत्र शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है और शक्ति की अवहेलना की जाए तो शिव का आत्म प्रकाशन संभव नहीं है। शक्ति के कारण ही शिव स्वयं सर्व शक्ति मान, सर्वज्ञानी, सर्वानंद, सगुण परमेंश्वर, जगत का सर्जक, पालक और भोक्ता बन जाता है। निज शक्ति से रहित शिव कोई भी कार्य नहीं कर सकते, किन्तु निज शक्ति सहित वे समस्त स्तरों के अस्तित्वों के सर्जक एवं प्रकाशक बन जाते हैं। शिव एक साथ स्रष्टा एवं सृष्टि आधार और आधेय आत्मा और शरीर हैं। शक्ति एक को अनेक करती है और पुनः अनेक को एक में मिला देती है। शिव का विस्तार सृष्टि है, शिव का संकुचन प्रलय है। अतः शिव के निर्गुण एवं सगुण दोनों ही स्वरूप स्वीकार्य हैं।
जो सृष्टि में है वही पिण्ड में है। ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।’ समस्त शरीरों का अन्तिम आधार एक परम आध्यात्मिक शक्ति है जो अपने मूल रूप में अद्वैत परमात्मा शिव से अभिन्न एवं तद्रूप है। समस्त शरीर एक स्वतः विकासमान दिव्य शक्ति की आत्माभिव्यक्ति है। वह शक्ति अद्वैत शिव से अभिन्न है। वही आत्म चैतन्य आत्मानंद, अद्वैत परमात्मा अपने आत्म रूप में स्थित होती है तब शिव कहलाती है और जब सक्रिय होकर अपने को ब्रहमाण्ड रूप में परिणत कर लेती है, तथा दिक्, काल सीमित असंख्य पिण्डों की रचना, विकास तथा संहार में प्रवृत्त होती है, तथा अपने को अनेक रूपों में व्यक्त करती है, तब शक्ति कहलाती है। यह शक्ति पिण्ड में कुण्डलिनी के रूप में स्थित है। यही शक्ति महाकुण्डलिनी के रूप में ब्रह्माण्ड में स्थित है।
इस प्रकार परमात्मा, जो परमेंश्वर हैं और स्वयं को व्यष्टि-शरीरों में विश्व रूप से प्रगट करते हैं, प्रत्येक सीमित व्यष्टि शरीर में या घट-घट में चित् स्वरूप में विराजते हैं। आकार की सीमाओं के कारण ही आत्मा, जीवआत्मा का रूप धारण कर दुःख-सुख व संताप भोगती है।
शिव-पूजा के रूप में हम शिव-लिंग की पूजा करते हैं। इसका क्या रहस्य है? शिव पुराण, लिंग पुराण एवं स्कंद पुराण में लिंगोत्पत्ति का विस्तार से वर्णन है- स्कंद पुराण में कथा है-वर्तमान श्वेत वाराहकल्प से जब देवताओं की सृष्टि समाप्त हो गई। युग के अंत में स्थावर जंगम सब सूख गए। पशु-पक्षी, मनुष्य, राक्षस, गंधर्व सब सूर्य के ताप से जल गए। सारी सृष्टि जल मग्न हो गई। सब दिशाओं में अंधेरा छा गया। ऐसे समय में ब्रह्माजी ने भगवान विराट को नारायण रूप से क्षीर सागर में शयन करते देखा। ब्रह्माजी ने नारायण को जगाया। भगवान नारायण ने ब्रह्माजी को बेटा कह कर पुकारा। ब्रह्माजी ने क्रोधित होकर पूछा-तुम हौन हो? मुझे बेटा कहने वाले ? में तो पितामह हूँ। भगवान विष्णु ने समझाया कि हमीं सृष्टि के कर्ताधर्ता हैं तुम्हें तो मेंने ही सृष्ट किया है। इस पर दोनों में वर्षों-वर्षों तक विवाद होता रहा, युद्ध होता रहा। इसी समय उनके सामने प्रचण्ड अग्नि का एक महा स्तंभ प्रकट हुआ जो ऊपर-नीचे अनादि और आनन्त था। दोनों ने इसे ही झगड़े का निर्णायक समझा। दोनों ने निर्णय किया-ब्रह्मा स्तंभ के ऊपरी हिस्से का पता लगाएं तथा विष्णु नीचे के भाग का। ब्रह्मा ने हंस का रूप धारण किया तथा विष्णु ने बाराह का रूप धारण किया। दोनों ने हजार वर्ष तक उस ज्योति-स्तंभ का अंत पा लेने की चेष्टा की, पर पार नहीं पा सके। अन्त में हार कर उस ज्योतिर्लिंग की दोनों ने प्रार्थना की, पूजा की। भगवान शिव प्रकट हुए तथा उन्होंने स्पष्ट किया कि ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र तीनों की उत्पत्ति महेश्वर के अंश से ही होती है। तीनों अभेद हैं, तीनों समान हैं। इस कथा-रूपक के कुछ तथ्य उभरे हैं:- 

1. सृष्टि का अनादि तत्व शिव है। यही कारण है-सृष्टि, स्थिति एवं प्रलय का।
2. उस शिव का स्वरूप ज्योतिर्लिंग के रूप में है। इस ज्योतिर्लिंग में ही सब कुछ समाहित है।
3. लिंग की जलहरी ब्रह्माण्ड का स्वरूप है।
4. यह ब्रह्माण्ड शिव का ही साकार स्वरूप है। उसकी निज शक्ति अर्थात् माया का ही पसारा है। शिव एवं शिवा अर्थात् ब्रह्म एवम् उसकी निज शक्ति (प्रकृति) दोनों तदाकार हैं। इसीलिए शिव का एक नाम अर्द्धनारीश्वर भी है।
5. शिव का स्वरूप निराकार एवं साकार दोनों हैं।
6. लिंग का जैसा स्वरूप ब्रह्माण्ड में है वैसा ही स्वरूप पिड में भी है। हमारा यह पूरा शरीर असंख्य लिंगों एवं योनियों के समायोग से निर्मित है

शिव हि ब्रह्म है


।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।
स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद 10-8-1


भावार्थ : जो भूत, भवि‍ष्‍य और सबमें व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।
'उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्‍ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।'।। 2-8-1।।-तैत्तिरीयोपनिषद

हिंदू धर्म की लगभग सभी विचारधाराएँ (चर्वाक को छोड़कर) यही मानती हैं कि कोई एक परम शक्ति है, जिसे ईश्वर कहा जाता है। वेद, उपनिषद, पुराण और गीता में उस एक ईश्वर को 'ब्रह्म' कहा गया है।

ब्रह्म शब्द बृह धातु से बना है जिसका अर्थ बढ़ना, फैलना, व्यास या विस्तृत होना। ब्रह्म परम तत्व है। वह जगत्कारण है। ब्रह्म वह तत्व है जिससे सारा विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें वह अंत में लीन हो जाता है और जिसमें वह जीवित रहता है।

हिंदू दर्शन, पुराण और वेदों में मतभेद ईश्वर के होने या नहीं होने में नहीं है। मतभेद उनके साकार या निराकार, सगुण या निर्गण स्वरूप को लेकर है। फिर भी ईश्वर की सत्ता में सभी विश्‍वास करते हैं। कुछ ईश्वर और उसकी सृष्टि में फर्क करते हैं और कुछ नहीं।


ओमकार जिनका स्वरूप है, ओम जिसका नाम है उस ब्रह्म को ही ईश्‍वर, परमेश्वर, परमात्मा, प्रभु, सच्चिदानंद, विश्‍वात्मा, सर्व‍शक्तिमान, सर्वव्यापक, भर्ता, ग्रसिष्णु, प्रभविष्‍णु और शिव आदि नामों से जाना जाता है, वही इंद्र में, ब्रह्मा में, विष्‍णु में और रुद्रों में है। वहीं सर्वप्रथम प्रार्थनीय और जप योग्य है अन्य कोई नहीं।

गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं- 'हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्‍य परम प्रकाशरूप उस दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।'-श्रीमद्‍भगवद्‍गीता-8

'सत (ईश्वर) एक ही है। कवि उसे इंद्र, वरुण व अग्नि आदि भिन्न नामों से पुकारते हैं।'-ऋग्वेद

'वह परब्रह्म (ईश्वर) एकात्म भाव से और एक मन से तीव्र गति वाले हैं। वे सबके आदि (प्रारंभ) तथा सबके जानने वाले हैं। इन परमात्मा को देवगण भी नहीं जान सके। वे अन्य गतिवानों को स्वयं स्थिर रखते हुए भी अतिक्रमण करते हैं। उनकी शक्ति से ही वायु, जल वर्षण आदि क्रियाएँ होती हैं। वे चलते हैं, स्थिर भी हैं; वे दूर से दूर और निकट से निकट हैं। वे इस संपूर्ण विश्‍व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्‍व के बाहर भी हैं।'।।4,5।।-ईशावास्योपनिषद

ईश्वर न तो भगवान है, न देवता, न दानव और न ही प्रकृति या उसकी अन्य कोई शक्ति। ‍ईश्वर एक ही है अलग-अलग नहीं। ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं वे सभी ईश्वर नहीं हैं। जो वेदज्ञ हैं, गीता के जानकार हैं और जिन्होंने उपनिषदों का अध्ययन किया है वे उक्त बातों से निश्चित सहमत होंगे। यही सनातन सत्य है।

'जो सर्वप्रथम ईश्वर को इहलोक और परलोक में अलग-अलग रूपों में देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात उसे बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में फँसना पड़ता है।'-कठोपनिषद-।।10।।


अंतत: उस ईश्वर की सभी देवी-देवता, ऋषि-मुनि, ब्रह्मा, विष्‍णु, महेश, राम और कृष्ण आराधना करते हैं। हिंदू धर्म ग्रंथ वेद, स्मृति, गीता आदि सभी में इस बात के प्रमाण हैं। वेद और पुराण के अनुसार 'वह ईश्वर एक ही है' दूसरा कोई ईश्वर नहीं है। मत्स्य अवतार से लेकर कृष्ण तक सभी अवतारी पुरुष उस ईश्वर की शक्ति से ही ईश्‍वर के संदेश को पहुँचाते रहे हैं।


Monday, 29 July 2013

हिन्दू आतंकवादी..??

 हिन्दू कभी भी आतंकवादी नहीं हो सकता क्योंकि जिस हिन्दू दर्शन में प्रकृति की पूजा करना, चींटी को आटा खिलाना और नाग को भी दूध पिलाना शामिल है वहां पर पला और बढ़ा कोई व्यक्ति क्या इस आतंकवाद की राह पर जा सकता है? यह एक गहन विचार का प्रश्न है। दुनिया के देशों में भारत ही आतंकवाद के दंश को झेलने वाला प्रमुख देश है। हमारा दुर्भाग्य है कि इस देश के प्रधानमंत्री केन्द्र सरकार के समर्थक या विरोधी के आधार पर अपनी जुबान खोलते हैं, न कि देश की इज्जत बचाने के लिये।
22 नवम्बर 2008 को राज्य पुलिस प्रमुखों की बैठक में बोलते हुये उन्होंने कहा कि देश के लिये वामपंथी आतंकवाद यानी नकसलवाद सबसे बड़ी समस्या है। यह सत्य उनके मुंह से तब निकला जब वामपंथी परमाणु करार के कारण उनकी सरकार से अलग हो गये। जब पश्चिम बंगाल के चुनाव आये तो प्रधानमंत्री जी को समझ में आया कि वामपंथी हमारे वहां पर दुश्मन हैं, चार साल तक गलबहियां डालने से पहले देश के हित में अगर विचार किया होता तो वामपंथी और मुस्लिम लीग केन्द्रीय सत्ता का हिस्सा कभी भी नहीं बन सकते थे और न ही प्रख्यात योग गुरु रामदेव के बारे में अनर्गल आरोप वामपंथी वृंदा करात के मुंह से निकल पाते।
वास्तव में इस देश को हिन्दू आतंकवाद से नहीं, खतरा तो उन शक्तियों से है जो कभी मानवाधिकारवादी चोला पहनकर, कभी लेखक या पत्रकार बनकर, कभी धर्मनिरपेक्ष नेता बनने का बहाना बनाकर देश विरोधी तत्वों की पैरवी करते हैं। चंद वोटों का लालच या चंद नोटों की चाहत उनकी कार्यशैली का हिस्सा बन चुकी है। देश में संसाधनों पर पहला हक किसी गरीब का नहीं, मुसलमानों का है, देश के मुखिया के मुंह से यह शब्दावली उसी कार्यशैली का हिस्सा है।
इस देश में दीपावली के ठीक एक दिन पहले शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती को गिरफ्तार किया जा सकता है लेकिन न्यायालय की अवमानना करने पर इमाम बुखारी को चेतावनी भी नहीं दी जा सकती। संत आशाराम बापू के अपमान का कुचक्र रचा जा सकता है लेकिन होली के एक दिन पूर्व कोयम्बटूर बम विस्फोट में 58 निर्दोषों की हत्या के मुख्य आरोपी अब्दुल नसीर मदनी को बाइज्जत रिहा कर दिया जाता है।
संसद हमले के आरोप में न्यायालय से सजा प्राप्त अफजल को फांसी से बचाने के प्रयास करने वाले लोग अमरनाथ श्राइन बोर्ड को किराये पर दी गयी भूमि हड़प सकते हैं, वीर सावरकर की सम्मान पट्टिका को उखाड़ देते हैं, आतंकवादियों की पैरवी करने की घोषणा करने वाले जामिया विश्वविद्यालय के कुलपति के विरुध्द एक भी शब्द न बोलने की हिम्मत जुटा सकने वाले लोग दीपावली के दिन भी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का खाना छीन सकते हैं। कितना आश्चर्य होता है कि इन्हीं के एक मित्र और सरकार के सहयोगी राजठाकरे सौ खून माफी का पुरस्कार महाराष्ट्र

भारत में जब कभी तुष्टीकरण के खिलाफ कोई आवाज उठती है तो उसे साम्प्रदायिक कहा जाता है, जब कभी देश के गौरवशाली संघर्ष पूर्ण इतिहास को याद दिलाने का प्रयास किया जाता है तो उसे भगवाकरण करने की साजिश बताया जाता है, आतंकवाद के मुद्दे पर जब देश को जाग्रत करने का अभियान चलाया जाता है तो हिन्दू आतंकवाद के नाम पर नयी पैंतरेबाजी शुरू हो जाती है।
आपको ध्यान रहे कि नये-नये शिगूफे छोड़ने में माहिर ये वही लोग हैं जो इस देश के इतिहास में गुरु तेग बहादुर और चन्द्रशेखर आजाद को भी आतंकवादी पढ़ाये जाने वाले पाठयक्रम की वकालत करते हैं, इनको रात-दिन केवल एक ही खतरा सताता रहता है कि कहीं यह देश आत्म विस्मृति से जागकर खड़ा हो गया तो इनकी दुकान में ताला लग जायेगा।वस्तुत: आज कल हिन्दू आतंकवाद वास्तविकता पर पर्दा डालने वाली शक्तियों के द्वारा हिन्दुत्व प्रेमियों के लिए एक विशेष गाली के रूप में प्रयोग किया गया एक नया ब्राण्ड है।
वैसे भी राजनीति में हर आम चुनाव आते ही कुछ लोगों और दलों को विशेष प्रकार के नवीन ब्राण्ड की खास जरूरत होती है। कभी गरीबी हटाओ का नारा दिया गया, कभी राष्ट्र की एकता अखण्डता का नारा दिया गया, कभी साम्प्रदायिक ताकतों को मिटाने का नारा दिया गया। इसमें से कौन से नारे के अनुरूप आचरण किया गया तथा देश का कितना भला हुआ यह तो इतिहास के पन्ने ही जानते हैं, फिर इस नये ब्राण्ड से देश का कौन सा भला होगा यह तो समय बतायेगा। आम चुनाव के पहले अपनी-अपनी पीठ थपथपाने वालों को ध्यान रखना चाहिए कि कहीं वास्तविक अपराधी न छूट जाए और हम अपनी खुन्नस ही निकालते रहें।
वैसे तो न्याय का एक नैसर्गिक नियम है कि एक भी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए भले ही अपराधी क्यों न छूट जाए। सरकारों के तीन ही मुख्य काम है कानून बनाना, कानून का पालन कराना और न्याय दिलाना। देश की जनता हर आम चुनाव में इन तीनों बातों का आकलन जरूर करती है, न्याय और अन्याय की भाषा को समझती है, धर्म और अधर्म की राह पर चलने वालों को पहचानती है तथा अत्याचारी और विद्वेष पूर्ण ही नहीं मनगढ़ंत प्रलापों को भी बखूबी समझती है।
वैसे तो हिन्दुत्व पर आक्रमण कोई नयी बात नहीं है। चूंकि हिन्दुत्व ही भारत की पहचान है इसीलिये सन् 637 में पहला जेहादी हमला भारत पर हुआ तथा 570 साल के संघर्ष के बाद सन् 1207 में दिल्ली में मुगल सत्ता स्थापित हो गयी किन्तु 500 साल भी टिक नहीं पायी। फिर भी न जाने कितने मंदिर टूटे, पृथ्वीराज चौहान की आंखे निकाल ली गयी, भाई मतिदास का सिर आरे से चिरवाया गया, भाई सतीदास के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये, भाई दयालदास को खौलते तेल की कढ़ाई में डाल दिया गया, गुरू तेगबहादुर का सिर कलम कर दिया गया, गुरुपुत्रों को जिन्दा दीवालों में चुनवाया गया, वीर हकीकत राय का बलिदान हुआ, बन्दा बैरागी की बोटी-बोटी नुचवायी गयी लेकिन जेहाद हारा और भारत विजयी हुआ।
भारत में अगर हिन्दुत्व को अपमानित करने के प्रयास होते हैं तो किसी को आश्चर्य नहीं होता है। कश्मीर से तीन लाख हिन्दू निकाले जाते हैं और देश के कुछ नेता कुछ भी बोलने की जरूरत नहीं समझते। दुनिया में बसे हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों के विरोध में बोलने के लिये जिनके पास दो शब्द भी नहीं है, उन्हें अरब देशों पर बहुत चिंता होने लगती है। उन्हीं को हिन्दू आंतकवाद भी जहरीले नाग की तरह दिखता है और पुलिस द्वारा जब आजमगढ़ के किसी आतंकवादी को पकड़ा जाता है तो वे गहरा दु:ख व्यक्त करते हैं। दूसरी ओर वहीं पर इकट्ठा होकर कुछ तथाकथित देशभक्त आधुनिक भारत में 565 रियासतों के एकीकरण के अग्रदूत लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को आतंकवादी कहने की हिम्मत जुटा लेते हैं और वही नेता सुनते रहते हैं, एक शब्द भी बोलने की आवश्यकता नहीं समझते। ऐसे ही लोग जामिया नगर मुठभेड़ में शहीद पुलिस अधिकारी की वर्दी पर कीचड़ उछालने से नहीं हिचकते।